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________________ निःशस्त्रीकरण हो, हिंसा और मारण का निवारण हो, तभी शिव-शक्ति के सम्वादी मिलन द्वारा स्वतंत्र, निरापद सृष्टि सम्भव है । उस आदेश का पालन न हुआ। "फलतः आम्रपाली का पीड़न जारी रहा। परात्पर शिव-पुरुष महावीर के वियोग में वह दिन-दिन अधिक विकल-पागल होती गई। अतः श्रीभगवान जब युग-परित्राता तीर्थंकर होकर उठे, तो वे नितान्त अकर्ता और निःसंकल्प वीतराग भाव से मानों वैशाली नहीं आये, आम्रपाली के द्वार पर ही आये । आद्या पराशक्ति आम्रपाली इतनी हताहत कुंठित और ग्रंथि-विजड़ित हो गई थी, कि उस अवस्था में अपने परम प्रीतम शिव के श्रीमुख-दर्शन और आरती-अर्चन का साहस भी वह न जुटा सकी। वह प्रभु के सामने आ ही न सकी। द्वार पक्ष से अपने परमेश्वर की झलक मात्र पाकर वह मूच्छित हो गयी। "ठिठके महावीर गतिमान हो गये। महाकाल और इतिहास उनका अनुसरण करने लगा। "विश्व-सृष्टि के विकृत हो गये काम के प्राकृतीकरण और स्वाभावीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हुई हठात् श्रीभगवान वैशाली के जगत्-विख्यात प्रमद-केलिवन-'महावन उद्यान' में प्रवेश कर गये। कामेश्वर शिव ने पथभ्रष्ट काम के पुनरुत्थान के लिये ही, मानो वैशाली के कामवन में ही अपना समवसरण बिछाया। वैशाली का तारुण्य इससे आतंकित हो गया : क्षोभ और आक्रोश से भर उठा। उन्हें लगा कि महावीर उनकी स्वाभाविक वृत्ति और जीवनी-शक्ति काम का उच्चाटन और दहन करने आये हैं। उन्हें कामकेलि से वंचित करने आये हैं। "यथामुहूर्त अगली सुबह की धर्म-देशना में श्रीभगवान ने उद्बोधन-आश्वासन दिया : “मैं तुम्हारे काम को तुमसे छीनने नहीं आया, उसे परिपूर्ण करने आया हूँ। मैं तुम्हारे विकृत और अधोमुख हो गये काम को प्रकृत, पूर्ण, अचूक, अखण्ड और ऊर्ध्वगामी बनाने आया हूँ। मैं तुम्हारे आलिंगनों और चुम्बनों को भंगुर मांस-माटी की सीमा से उत्क्रान्त करके उन्हें भूमा के राज्य में अमर, निरन्तर और शाश्वत बनाने आया हूँ। मैं तुम्हें निरन्तर मैथुन की परात्परा कामकला सिखाने आया हूँ। मैं उसे पशुत्व से ऊपर उठा कर पशुपतिनाथ बनाने आया हूँ।...” आशय है कि इसके बिना पशुजय सम्भव नहीं, सृष्टि के वैषम्य और शोषण-पीड़न का निवारण सम्भव नहीं। काम के ऊर्वीकरण के बिना सृष्टि कृतार्थ, परितृप्त और पूर्ण नहीं हो सकती, सम्वादी नहीं हो सकती। सृष्टि का मूलाधार है धृति : धारण करना : धर्म। धर्मपूर्वक अर्थ और काम का पुरुषार्थ किये बिना--मोक्ष का मुक्तकाम पूर्णकाम अविनाशी योग सम्भव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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