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________________ २४ होते हैं। यानी कि मिथिकल पात्र और चरित्र सीधे कॉसमॉस या कॉस्मिक विराट में से कट कर ही अवतीर्ण होते हैं। इसी कारण, इस अनन्तता और अजस्रता की वजह से ही उनकी अपील शाश्वत, चिरन्तन, और निरन्तर तरोताजा बनी रहती है। 'अनुत्तर योगी' उसी अनन्त ब्रह्माण्डीय फलक पर लिखा गया है। इसी कारण उसके पात्र वैयक्तिक होकर भी वैश्विक हैं, तत्कालीन होकर भी सर्वकालीन हैं, ऐतिहासिक होकर भी पराऐतिहासिक हैं, सामाजिक होकर भी परा-सामाजिक हैं, प्रासंगिक होकर भी शाश्वत की परम्परा से जुड़े हुए हैं, भौगोलिक होकर भी ब्रह्माण्डीय हैं, प्रादेशिक होकर भी सार्वभौमिक हैं, खण्ड होकर भी अखण्ड हैं, सीमित-सान्त होकर भी अनन्त-असीम हैं, सूक्ष्म परमाणविक होकर भी स्थूल पिण्डात्मक हैं, रक्तमांस के वास्तविक नर-नारी होकर भी, वायवीय हैं--'इथीरियल' हैं, पार्थिव होकर भी आत्मिक और अन्तरिक्षीय हैं। उनमें फन्तासी और रियालिज्म का सहज ही सामंजस्य और समन्वय हुआ है। इसी कारण उनकी अपील अनायास सर्वकालीन और सार्वदेशिक हो गई है। पुराकथा की संचरना की इस 'एनाटॉमी' को सम्यक् भावेन समझ लेने पर ही, पुराकथा की सत्यता, यथार्थता और 'अभी' और 'यहाँ उसकी प्रासंगिकता को सही मानों में आकलित और अवगाहित किया जा सकता है। ___ कोई भी रचनाकार जब रचना करता है, तो उसे पता नहीं होता है, कि उसके रचना-विस्तार की ठीक-ठीक प्रक्रिया क्या होगी ? एक धुंधली आकार-रेखा (कण्टूर) भर उसके सामने होती है : निपट एक फलक-स्तरीय रेखांकन। मगर रचना के दौरान जब वह गहराइयों को थाहता है, तो उसके अनजाने ही जाने कितने ही अपूर्व गोपन-गुढ़ रहस्यों का अनावरण और सृजन होता चला जाता है, जिसका कोई पूर्वाभास उसे नहीं होता, और रचना करते समय भी न वैसा कोई इरादा होता है, न उस उद्घाटन-आविष्कार का पता चल पाता है। प्रस्तुत चतुर्थ खण्ड उस मुकाम पर खुलता है, जब महावीर तीर्थंकर होने के बाद पहली बार प्रकटतः वैशाली आ रहे हैं-या आते हैं। उनके स्वागत की सारी तैयारी स्वभावतः पूर्व के तोरण-द्वार पर ही होती है। नगर के अन्य तीन दिशागत द्वार यों भी मगध-वैशाली के वर्षों व्यापी शीतयुद्ध के चलते बन्द हैं। · मगर अजब है कि महावीर अकस्मात् वैशाली के कीलों-सांकलों जड़ित वर्षों से बन्द पश्चिमी द्वार के सामने आ खड़े होते हैं। उनके दृष्टिपात मात्र से द्वार सारी अर्गलाएँ तोड़कर खुल पड़ते हैं । और कठोर वीतराग महावीर बिना किसी इरादे के देवी आम्रपाली के 'सप्तभौमिक' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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