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________________ . २३ मिथक और गहन गर्भवान प्रतीक ही पश्चिमी मानस को आज अधिक आकृष्ट करते हैं। पश्चिम का पाठक वर्तमान भारतीय साहित्य में, उस खोये हुए स्वप्न को फिर से जीवन्त पाना और जीना चाहता है। इसी से यह भी रिपोर्ट मिलती है, कि भारत के पुराकथात्मक साहित्य की माँग आज पश्चिमी दुनिया में बढ़ती जा रही है। पश्चिम से उधार लिया हुआ भीषण यथार्थवाद और अस्तित्ववाद जब आज के हिन्दुस्तानी साहित्य में वल्गेराइज़ हो कर व्यक्त होता है, तो पश्चिम के पाठक को उससे मतली होती है। वह अपनी मशीनी सभ्यता से उत्पन्न मतली, ऊब, उलझन, अशांति, हिस्टीरिया को भारत के साहित्य में पढ़ने को जरा भी तैयार नहीं। मतलब कि औद्योगिक-यांत्रिक सभ्यता से थका-हा। मृतप्राय, ह्रासोन्मुख, पराजित पश्चिमी मनुष्य मानव-जाति के खोये हुए मिथक और स्वप्न को ही भारत के वर्तमान साहित्य में खोजता है, उसके अपने ही पिटेपिटाये भीषण यथार्थ की पुनरावृत्ति नहीं । जब कि हमारे वर्तमान बौद्धिक सर्जक की मति ठीक इससे उलटी चल रही है। वह पुराकथा, स्वप्न और फन्तासी को पलायन कह कर उसका तिरस्कार करता है, उसे अप्रासंगिक कहता है। वह पश्चिम में निष्फल हो चुकी सतही क्रांतियों के साहित्य को ही प्रासंगिक मानता है, और उसे 'भोगा हुआ यथार्थ', की संज्ञा देकर उसी को पीटने-दुहराने में अपनी आधुनिकता की सच्ची कृतार्थता अनुभव करता है। इस सतही यथार्थवाद और प्रगतिवाद से ग्रस्त होने के कारण ही, आज का भारतीय बौद्धिक, सर्जक 'मायथोलॉजी' के सही अभिप्राय और आशय को समझ नहीं पाता है। और पुराकथा को अयथार्थ, असत्य और मिथ्या कल्पनाजल्पना मानता है। तथाकथित यथार्थ के निरे भौतिकवादी चश्मे से पुराकथा के पात्रों की जीवन्तता को समझना सम्भव ही नहीं है। पुराकथा का फलक या कैनवास कॉस्मिक (वैश्विक). होता है, निरा देश-कालगत भौगोलिक, प्रादेशिक या ऐतिहासिक नहीं होता। इसी से पुराकथा के पात्र, व्यक्ति और व्यक्तित्व होकर भी, निरे वैयक्तिक नहीं होते, वे वैश्विक होते हैं : वे समग्र 'कॉस्मॉस' या वैश्विक संज्ञा के ही संयोजक घटक होते हैं। वे प्रतीक-पुरुष और . प्रतीक-नारियाँ होते हैं, जो सृष्टि की विभिन्न, विविध और द्वन्द्वात्मक आदिम शक्तियों-परिबलों (Forces) के व्यंजक और प्रतिनिधि प्रतिरूप होते हैं । पुराकथा की सार्थकता और प्रासंगिकता को आकलित करने का यही एक मात्र सही नजरिया हो सकता है। यथार्थवादी पट या पात्र एक हद के बाद मॉनोटोनस, निर्जीव पुनरावृत्ति मात्र हो ही जाते हैं। जबकि पौराणिक पात्र देश-काल से सीमित प्रतिबद्ध न होने के कारण सदा ताजा और जीवन्त लगते हैं, क्योंकि वे अनन्त असीम 'कॉस्मॉस' के परिप्रेक्ष्य में से आविर्भूत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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