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________________ २१ चरम तक होता है, अस्तित्वगत संत्रास को परा सीमा तक आलेखित किया जाता है। लेकिन उपसंहार में सुखान्तिकता अनिवार्य है । नरक है, मृत्यु है, मगर अन्ततः स्वर्ग है, अमरता है, शाश्वती ( इटर्निटी) है। आ अधिकांश पाश्चात्य साहित्य अस्तित्वगत द्वंद्व और त्रासदी पर ही समाप्त है । भारत द्वंद्व और त्रासदी को सम्पूर्ण स्वीकारता तो है, पर उसकी कथा उपसंहार द्वंद्वातीत शाश्वत मिलन में होना जैसे अनिवार्य है । क्यों कि अन्ततः शाश्वत जीवन ही परम सत्य है, ध्रुव स्थिति है । इसी कारण हमारे क्लासिक साहित्य में वास्तव और दन्तकथा का, यथार्थ और मिथक का, स्वप्न और तथ्य का, मूर्त और अमूर्त का वज्रकठोर और कुसुम - कोमल का सुन्दर और असुन्दर का अद्भुत सम्मिश्रण और सामंजस्य दिखायी पड़ता है । यहाँ यह भी लक्षित करना होगा कि पश्चिम के क्लासिकों में भी मिल्टन का महाकाव्य 'पेरेडाइज़ लॉस्ट' पर ही समाप्त नहीं होता, 'पेरेडाइज़ रिगेन्ड' में ही उसकी चरम परिणति होती है । दान्ते ने 'कॉमेडिया डिविना ' ही लिखी, 'ट्रैजेडिया डिविना' नहीं । 'इनफ़नों' में नरकों के तमाम मण्डलों और पातालों को पार कर के, 'पर्गेटोरियों' में आत्मशुद्धि के अग्नि-स्नान से गुज़र कर, 'पेरेडिसो' में कवि 'पेरेडाइज़' के उद्यान-सरोवर के तट पर अपनी दिवंगता विरहिता प्रिया बीट्रिस से पुनः मिलता है, और वह मिलन-सुख शाश्वत हो जाता है । - यानी क्रूसीफ़िक्शन ही सत्य नहीं, रिसरेक्शन भी उतना ही सत्य है : बल्कि वही अन्तिम और शाश्वत सत्य है । इस शाश्वती का साक्षात्कार ही भारतीय सृजन का परम अभीष्ट या लक्ष्य कहा जा सकता है। 'अनुत्तर योगी' में द्वंद्व और द्वंद्वातीत, काम और पूर्णकाम, का यह सामंजस्य कहाँ तक सिद्ध हो सका है, भंगुर में अमर का और ऐन्द्रिक में अतीन्द्रिक का दर्शन-आस्वादन कहाँ तक विश्वसनीय हो सका है, शाश्वती की अनुभूति ठीक मनोवैज्ञानिक स्तर पर कहाँ तक रूपायित हो सकी है, यह निर्णय सच्चे भावक और भाविक पाठकों, लेखकों और समीक्षकों के हाथ है। उसमें मेरा क्या दख़ल हो सकता है ? इतना ही जानता हूँ, कि अधोलोक के अतल अन्धकारों में, नग्न निद्वंद्व खेल कर भी, अन्ततः मैं ऊर्ध्व के ज्योतिर्मय वातवलयों में ही तैरता पाया गया हूँ, उड्डीयमान हो सका हूँ । जीवन में पल-पल चरम त्रासदी को जी कर भी, अन्ततः सदा सुन्दर के स्वप्न में ही उत्क्रान्त होता रहा हूँ, जीता रहा हूँ । इत्यलम् । हमारे साहित्य में 'विशुद्ध भारतीय उपन्यास' की तलाश जो आज इस शिद्दत से हमारे बौद्धिकों के बीच चल पड़ी है, उसका एक और भी सचोट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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