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________________ सारे आंचलिक उपन्यासों में क्या भारत की आदिम माटी की गन्ध ही नहीं महक रही ? क्या कमलादास के आत्मकथात्मक उपन्यास 'मेरी कहानी' में भारत की आत्मा ने ही पश्चिम का शरीर धारण नहीं किया है ? ___ तब फिर वह क्या विशिष्ट अवशिष्ट है, जिसके अभाव में भारतीय उपन्यास' के प्रकृत स्वरूप की तलाश अब भी जारी है ? यह तलाश कथ्यगत है या शिल्पगत है ? क्या कोई अनादि-अनन्तकालीन भारत हो सकता है ? यह क्यों कर सम्भव है ? निरन्तर परिवर्तनशील देश-काल में कोई भी देश या संस्कृति-विशेष अक्षुण्ण रूप से चिरन्तन-शाश्वत कैसे कही जा सकती है ? ये प्रश्न उत्तर माँगते हैं, और इनका उत्तर देने का दुःसाहस मैं यहाँ नहीं करूंगा। - मगर एक बात ज़रूर ध्यान में आती है--इस सन्दर्भ में। भारत की अनाद्यन्त खोज की उपलब्धि सारांशतः यह है कि : "द्वंद्व और द्वंद्वातीत, सूक्ष्म और स्थूल, आत्मिक और भौतिक, मूर्त और अमूर्त, दोनों ही अपनी जगह सत्य हैं। 'एकोहं बहुस्याम्' कह कर वह एकमेव' ही दो हो कर फिर बहु हुआ है : वही है यह जगत्-सृष्टि, यह जीवन । इसी से भारत का कहना है, कि द्वंद्वातीत में द्वंद्व का इनकार नहीं है, और द्वंद्व में द्वंद्वातीत का इनकार नहीं है। वैसे ही आत्मिक में भौतिक का, और भौतिक में आत्मिक का इनकार नहीं है। समुद्र में तरंग का, और तरंग में समुद्र का इनकार नहीं है। अमूर्त ही मूर्त हुआ है, और मूर्त की मुक्ति अमूर्त में ही सम्भव है। अखण्ड अमूर्त का साक्षात्कार हुए बिना, खण्ड मूर्त में पूर्णत्व का प्राकट्य सम्भव नहीं। द्वंद्व और द्वंद्वातीत में जो एक साथ खेल रहा है, वही भारत है, वही भारतीय आत्मा की अस्मिता है। एक में अनेक, और अनेक में एक की लीला का दर्शन-आस्वादन, यही भारत की विशिष्ट अन्तश्चेतना है। जिस उपन्यास या गाथा में इस लीला का स्पष्ट और सीधा साक्षात्कार तथा मूर्तन हो, शायद उसे ही 'विशुद्ध भारतीय' उपन्यास की संज्ञा प्रदान की जा सकती है। यह शाश्वत कथा की पटभूमिका पर ही सम्भव है। शाश्वत कथा के लिए सबसे उपयुक्त फॉर्म है मिथक, पुराकथा । क्योंकि उसमें तात्कालिकता होते हुए भी सार्वकालिकता होती है। वह काल में घटित होते हुए भी, महाकालीन, सर्वकालीन और कालातीत एक साथ होती है। एक और भी बात विशुद्ध भारतीय कथा-साहित्य के लाक्षणिक स्वरूप को उजागर करती है। उसमें फन्तासी और वास्तविकता दोनों एकाग्र रूप से संयुक्त पायी जाती है। उसमें त्रासदी और कॉमेदी (सुखान्तिका) द्वंद्व और द्वंद्वातीत का निर्वाह एक साथ होता है। उसका अन्त सदा कॉमेदी में होता है। उसमें वास्तविक संसार जीवन के स्तर पर त्रासदी का चित्रण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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