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मनुष्य की दृष्टि से उसका चरम शिवत्व और सौन्दर्य से संयुक्त होना, सभी गोचर द्वंद्वों एवं संघर्षों का अन्ततोगत्वा सत्ता की समरसता में विलीयमान होना--आदि भारतीय संस्कृति के कुछ ऐसे विश्वास ‘अनुत्तर योगी' के अनुभव की पीठिका हैं। और यही पीठिका उसे एक विशुद्ध भारतीय उपन्यास प्रमाणित करती है।.."
-डा० चन्द्रकान्त बांदिवड़ेकर
('उपन्यास : स्थिति और गति' ग्रंथ से साभार) डॉ. बांदिवड़ेकर सबसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'अनुत्तर योगी' पर 'निखालिस भारतीय उपन्यास की मुद्रा अंकित की। फिर डॉ. श्यामसुन्दर घोष ने कहा कि 'अनुत्तर योगी'--'भारतीय संस्कृति का चित्रागार है । इसके अनन्तर श्रीराम वर्मा ने भोपाल के 'साक्षात्कार' में लिखा कि : “इधर निर्मल वर्मा विशुद्ध भारतीय उपन्यास के सम्भाव्य स्वरूप की खोज में हैं। अपनी तमाम खोज के वावजूद वे अपने उपन्यासों में पाश्चात्य वास्तववाद (रियालिज्म) से उबर नहीं पा रहे हैं। जबकि वीरेन्द्र कुमार जैन ने 'अनुत्तर योगी' के रूप में विशुद्ध भारतीय उपन्यास लिख कर, उसके मौलिक स्वरूप का साक्षात्कार करा दिया। वीरेन्द्र कुमार जैन तो भौतिक यथार्थ यानी 'रियालिज्म' को स्वीकारते ही नहीं, उस पर रुकते ही नहीं। उनके सृजन का स्रोत है 'रियालिटी' (मौलिक सत्ता), और समस्त जगत्-जीवन को भी वे इसी 'रियालिटी' के परिप्रेक्ष्य में ही देखते-जानते और अनुभूत करते हैं।-आदि" ठीक शब्द इस वक्त सामने नहीं हैं, मगर श्रीराम वर्मा का आशय निःसन्देह ठीक यही है : वक्तव्य के सारे तथ्य यही हैं। - डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय ने कहा कि -- 'अनुत्तर योगी' में वीरेन्द्रकुमार जैन ने वेदव्यास बनने की कोशिश की है। इसमें 'महाभारत' की यह प्रतिज्ञा स्पष्ट झलकती है कि--'जो यहाँ नहीं है, वह कहीं नहीं है, जो जहाँ भी है-वह सब यहाँ एक साथ है।'--आदि।" डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने इसे भारतीय आत्मा का अनादिकालीन महाकाव्य कहा, और डॉ. विवेकी राय ने इसकी विशुद्ध भारतीयता को विस्तार से विवेचित किया। - इन तमाम सन्दर्भो के सिलसिले में ही मुझे पहली बार जानने को मिला कि साहित्य में इधर 'विशुद्ध भारतीय उपन्यास' जैसी किसी चीज़ की तलाश चल रही है। और इस तलाश के लक्ष्य को समझने में मैं अब भी असमर्थ हूँ। रवीन्द्र और शरत् का कथा-साहित्य क्या भारत की अन्तश्चेतना से ही अनुप्राणित नहीं ? दक्षिण भारत के सभी दिग्गज कथाकारों ने क्या भारत की महान जीवन्त परम्परा को ही आलेखित नहीं किया ? प्रेमचन्द के 'गोदान' के होरी में क्या भारत की आदिम आत्मा ही नहीं बोलती ? हमारे
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