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समीक्षक आमतौर पर संस्कारबद्ध, रूढ़िबद्ध और 'सॉफ़िस्टीकेटेड' ही होते हैं । पाठक ही मुक्तचेता और रचना का सच्चा स्वाभाविक गृहीता और अवबोधक होता है । 'अनुत्तर योगी' के हज़ारों पाठकों के अभिमत से यह सत्य और तथ्य प्रमाणित हुआ है ।
'अनुत्तर योगी' में ढाँचे का टूटना जिस तरह एक दिन अकस्मात् 'ब्रॉडकास्ट' की तरह चारों ओर से सुनाई पड़ा था, उसी तरह एक दिन हठात् यह टेलीकास्ट भी देखने-सुनने में आया कि - 'अनुत्तर योगी' सही मानों में एक 'विशुद्ध भारतीय उपन्यास' है । मैं हैरान देख कर, कि 'विशुद्ध भारतीय उपन्यास ' कोई ख़ास चीज होती है क्या ? भारतीय जीवन को ले कर लिखा गया, हर हिन्दुस्तानी लेखक का उपन्यास क्य: भारतीय ही नहीं होता है ?
बंकिम, रवीन्द्र, शरत्, ताराशंकर, विभूतिभूषण, प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, वात्स्यायन, विमल मित्र, खाण्डेकर, राजा राव, मुल्कराज आनंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी, और हमारे तमाम आंचलिक उपन्यास - ये सब क्या विशुद्ध भारतीय नहीं ?
तभी शिलालेख या कहिये आकाश - लेख की तरह एकाएक कहीं पढ़ने को मिला :
"... इधर पाश्चात्य प्रभाव से हमारा साहित्य इतना प्रभावित है, कि वह कभी- कभी पाश्चात्य वाङमय का हिन्दी अनुवाद-सा लगता है । ऐसी स्थिति में आधुनिक साहित्य में निख़ालिस भारतीय उपन्यास लिखने का श्रेय वीरेन्द्रजी को जाना चाहिए । 'अनुत्तर योगी' किस माने में विशुद्ध भारतीय है, इसका स्पष्टीकरण ज़रूरी है । इस उपन्यास का केन्द्रीय व्यक्तित्व और इस महागाथा का अनुभव समस्त भारतीय संस्कृति का एक विशुद्ध परिणमन है । वैज्ञानिक बुद्धिवाद के प्रभाव में आकर हमारा आज का बौद्धिक पुराचीनं जगत के अतीन्द्रीय अनुभवों का, विराट् व्यक्तित्वों तथा अतिमानवीय घटनाओं का या तो अविश्वास करने की मुद्रा में रहता है, अथवा उन्हें बुद्धि सम्मत पहराव देने का प्रयास करते हुए मूल मिथकीय अनुभव को ही नकार देता है। ...
" भारतीय योग-साधना, ध्यान-धारणा, भक्तिपरायणता, अलौकिक चमत्कारों की वास्तविकता, केवलज्ञानी एवं त्रिकालचेता विराट् व्यक्तित्व की उपस्थिति में सहज आस्था, जन्म और मरण का शाश्वत सत्ता की सापेक्षता में लहर और समुद्र की तरह रिश्ता, जन्म-जन्मान्तरवाद और कर्मवाद में विश्वास, मूल सत्ता के गुणात्मक रूप को स्वीकार करते हुए भी,
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