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थे । मगर भारतीय साहित्य में यह जानकारी मौजूद होते हुए भी, किसी बड़े बड़े उपन्यासकार ने भी यह साहस नहीं किया था, या वैसा करने की कोई ज़रूरत किसी को महसूस न हो सकी थी। सच तो यह है कि किसी भी बड़ी और स्वाभाविक रचना में ढाँचा इरादतन तोड़ा नहीं जाता, वह आपोआप ही टूटता है। तो मानना होगा कि वह रचना या रचनाकार की किसी भीतरी ज़रूरत में से ही टूटता है । हक़ीक़तन मेरे साथ भी यही हुआ होगा । क्योंकि प्रयोग करने के लिए प्रयोग करना कभी मेरे स्वभाव में न रहा, जब भी मुझ से प्रयोग हुआ, मेरी ख़ास तरह की अन्तश्चेतना और उसकी रचनात्मक आवश्यकता में से ही हुआ। लेकिन यह तो अब एक सर्व-स्वीकृत तथ्य हो चुका है, कि 'अनुत्तर योगी' में उपन्यास का परम्परागत ढाँचा टूटा है । और इसे मैं अपने तईं एक उपलब्धि ही मानता हूँ, दोष नहीं । वैसे भी मैंने आलोचक या पाठक को लक्ष्य में रख कर कभी नहीं लिखा। जो भी लिखा, प्रथमतः अपनी विलक्षण आत्मानुभूति और आत्माभिव्यक्ति के तकाज़े में से ही लिखा ।
इस सन्दर्भ में मुझे दो वर्ष पूर्व 'पूर्वग्रह' में प्रकाशित धनंजय वर्मा के एक विस्तृत लेख का ध्यान आता है, जिसमें उन्होंने बड़े साहसपूर्वक भारतीय उपन्यास पर यह टिप्पणी की थी, कि हम पश्चिम से आयातित एक ढाँचे की परिपाटी को ही पीट रहे हैं, किसी ने अब तक उपन्यास के प्रस्थापित ढाँचे को तोड़ने की कोई पहल या पराक्रम नहीं किया है। उसके बाद स्वयम् धनंजय ने मुझ से यह जिक्र भी किया था, कि वस्तुतः उनका वह लेख 'अनुत्तर योगी' की उनके द्वारा आगे की जाने वाली समीक्षा की भूमिका ही था, और उसके उत्तरार्द्ध-स्वरूप जो लेख अब वे लिखेंगे, उसमें वे यह स्थापना करेंगे कि 'अनुत्तर योगी' का रचनाकार इस मामले में अपवाद स्वरूप है, और उसने स्थापित औपन्यासिक ढाँचे को तोड़ने की साहसिक पहल की है। प्रकारान्तर से धनंजय वर्मा से पहले ही श्रीराम वर्मा और प्रभात कुमार त्रिपाठी भी यह बात अपने ढंग से कह चुके थे, इसका उल्लेख न करना उन दोनों साहित्य-मर्मज्ञ मित्रों के प्रति अन्याय होगा ।
यहाँ इस सन्दर्भ में यह कह देना भी जरूरी कि 'अनुत्तर योगी' का भावक पाठक बिना किसी ऐसे विवाद में पड़े उसे अपनी जड़ों से सीधा पीता चला गया है, और उसे इसमें वह परितृप्ति और समाधान मिला है, जो उसे अन्यत्र आज तक कहीं न मिल सका था। इसमें ढाँचा टूटने, और एक अधिक तर्पक विधा के आविष्कृत होने की बात स्वतः ही गर्भित है । सच पूछो तो किसी भी कृति का सच्चा मूल्यांकनकार उसका भाविक और सुरसिक पाठक ही होता है, कोई रचनाकार या समीक्षाकार नहीं । क्योंकि लेखक और
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