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________________ १६ यह एक विशुद्ध महाकाव्य ही अधिक है । कविता की तमाम शर्तों को बेशक यह पूरा करता है, मगर उपन्यास इसे कैसे कैसे कहें ? क्योंकि इसमें उपन्यास का कोई सर्वमान्य सिलसिला हाथ नहीं आता । इसका सारा गद्य इस क़दर गीत्यात्मक (लिरिकल ) है, कि उपन्यास की गद्यात्मक मूर्तता इसमें ग़ायब दिखायी पड़ती है । एक तरल, अबन्ध्य काव्य - प्रवाह में ही यह सारी कृति रची गई है, जो किसी भी ठोस वास्तविक तटबन्ध को नहीं स्वीकारती । इस प्रकार की आलोचनाओं के फलस्वरूप एक बात अवश्य प्रमाणित होती है, कि 'अनुत्तर योगी' न तो उपन्यास है, न निरा काव्य है, बल्कि कोई एक तीसरी ही असंज्ञनीय विधा इसमें आविर्भूत होती दिखायी पड़ती है । एक तरह से यही कथन सही कहा जा सकता है। वस्तुतः हक़ीक़त यह है कि इसे लिखना आरम्भ करते समय मेरे मन में ऐसी कोई सतर्क धारणा नहीं थी कि मैं इसमें उपन्यास का पूर्व-निर्धारित ढाँचा तोडूं | असल में कोई शिल्पगत पूर्व-परिकल्पना मेरे मन में थी ही नहीं । शिल्प या रूप-बन्ध के स्तर पर जो कुछ भी हुआ है, वह अपने आप ही होता चला गया है । मानो कि इसके शिल्पी या स्थापत्यकार स्वयम् इसके महानायक महावीर ही रहे। वे मुझ से जिस तरह लिखवाते चले गये, मैं लिखता चला गया। गोया कि अपनी कथा का रूप निर्धारण महावीर ने मेरे हाथ रक्खा ही नहीं, वे स्वयम् ही जैसे इसमें स्वतः रूपायित होते चले गये । इसके अतिरिक्त इसका अन्य कोई स्पष्टीकरण मेरे लिए सम्भव नहीं है। जब कई समीक्षकों ने एक ही बात बार-बार दोहराई कि इसमें ढाँचा टूटा है, तो मानो अपने सृजन की योग-निद्रा से उचट कर एकाएक किसी सबेरे यह ख़बर मैंने जैसे किसी अख़बार की हेड - लाइन में पढ़ी और मैं चकित हो गया, कि क्या सचमुच ऐसा कुछ हुआ है ? ठीक उसी तरह, जैसे कोई किशोरी हठात् मुग्धा होने पर, लोगों की उसके रूप-यौवन पर मुग्ध - विभोर होती दृष्टि से वह सचेतन होकर जाने, कि उसके शरीर में कुछ ऐसा रूपान्तर हुआ है, जो सारे परिवेश की सम्मोहित दृष्टि का केन्द्र बन गया है । और तब मानो वह स्वयम् ही अपने रूप- लावण्य पर आत्म-मुग्ध हो जाये, और लजा जाये, नज़रें झुका कर आप ही अपने सौन्दर्य की समाधि में निमग्न हो जाये । वस्तुत: यह आलोचना मुझे सही और अच्छी ही लगी । यह जान कर मुझे आल्हाद का रोमांच ही अनुभव हुआ कि मेरे हाथों कुछ ऐसा अघटित घटित हुआ है, जो भारतीय साहित्य में इससे पूर्व नहीं हुआ था । पश्चिम में तो उपन्यास का स्ट्रक्चर ( ढाँचा ) बहुत पहले ही टूट चुका था । हेनरी प्रूस्त, जेम्स जॉयस और वर्जीनिया वुल्फ़ यह काम बहुत पहले ही कर चुके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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