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________________ १२ कथानक स्वयम् ही अपने मौलिक उपादान में से रूपाकार लेते दिखाई पड़े। मैं निमित्त मात्र रह गया : और जैसे महावीर स्वयम् ही अपने धर्मचक्र प्रवर्तन का शिल्पन करने लगे। मानव चरित्र के अकथ-अगम रहस्यों के तलातल आपोआप ही रचना में खुलने और रूपायित होने लगे। तब हुआ यह कि हर खण्ड के औसत पृष्ठों की सीमा पर ही मुझे तृतीय खण्ड रोक देना पड़ा। उसके बाद नाड़ीभंग से गुज़रा, और अपनी सत्ता ही अपने काबू से बाहर हो गई। और मेरे उस काँपते अस्तित्व को आम्रपाली ने अपने आँचल में सहेज कर, मुझे फिर रचना-सन्नद्ध कर दिया, जिसका जिक्र पहले कर चुका हूँ। चतुर्थ खण्ड अजस्र प्रेरणा के साथ उतरने लगा, और अतिरिक्त दो सौ पृष्ठ उसी खण्ड में लिखकर, ग्रंथ को समापित करने की मेरी योजना भी मानो कि मेरे हाथ न रक्खी गयी। थक कर निढाल, निःसत्व, अस्वस्थ और निष्क्रिय हो गया। और उसी अन्तराल में मुझे 'नवनीत' पर बैठा दिया गया। बाद को स्पष्ट हुआ, मानो कि इसमें भी महावीर का ही कोई ईश्वरीय षड्यंत्र था। मेरे न चाहते भी पंचम खण्ड लिखने की तलबी मेरे सामने आ खड़ी हुई। और इस डेढ़ वर्ष में जैसे अनुत्तर योगी महावीर 'नवनीत' के व्यासपीठ से धर्मचक्र प्रवर्तन करते दिखाई पड़े। मैं आश्चर्य से स्तब्ध हूँ, और केवल 'निमित्त मात्रं भव सव्यसाचिन्' हो रहने को बाध्य हूँ। - यह विस्तार क्यों उत्तरोत्तर बढ़ता ही चला गया, इसका उत्तर भाविक पाठक स्वयम् ही रचना को पढ़ने के दौरान पाते चले जायेंगे। फिर भी इस सन्दर्भ में जो कैफ़ियत मेरे लक्ष्य में आती है, उसे यहाँ प्रस्तुत करना अनुचित न होगा। बल्कि शायद पाठक और समीक्षक को कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से इस विस्तार के औचित्य को समझने में मदद मिलेगी। चतुर्थ खण्ड को जिस मुकाम पर रोक देना पड़ा है, वहाँ तक महावीर के धर्मचक्र प्रवर्तन का भूगोल पूर्वीय आर्यावर्त तक ही सीमित रह जाता है। उनके समवसरण का विहार (अभियान) घूम-फिर कर मगध, वैशाली, चम्पा, काशी-कोशल और वत्सदेश (कौशाम्बी) से आगे जाता नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन फिर एक मोड़ आता है, महावीर की आगमोक्त कथा में ही। धुर पश्चिमोत्तर के सिन्धुसौवीर देश की राजधानी वीतिभय नगर से प्रभु को पुकार सुनाई पड़ती है। वहाँ के राजा उदायन, जो महावीर के मौसा भी थे, दूर से और अनदेखे ही चिर काल से महावीर के भक्त और प्रेमी थे। महावीर की मौसी और उदायन की रानी प्रभावती ने और उन्होंने, भगवान् के कुमारकाल में ही गोरोचन चन्दन काष्ठ से उनके कुमार-स्वरूप की एक मूर्ति बनवाई थी, जिसे 'जीवन्त स्वामी' की संज्ञा प्रदान की गई थी। आज जो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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