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________________ ११ चली गई ? स्वयम् लेखक भी यह निर्धारित न कर सका, न जान सका, कि इसे कहाँ विराम लेना है ? ऐसा क्यों ? क्या यह इस बात का द्योतक नहीं, कि लेखक अनगढ़ है, और योजनाबद्ध संगठित रूप से रचना करने की कला - सामर्थ्य से वह वंचित है ? वैसे इसका एक सीधा उत्तर यह है, जो पहले भी दे चुका हूँ, कि इस रचना का स्वामित्व आरम्भ से ही मैंने अपने हाथ नहीं रक्खा । शुरू से ही स्वयम् महावीर को मैं इसका विधाता, नियोजक, निर्णायक मान कर चला हूँ । ख़ास कर जब हम किसी भागवदीय व्यक्तिमत्ता का सर्जन करते हैं, तो क्या यही स्वाभाविक स्थिति नहीं होती ? साहित्य के इलाक़े में भागवदीय व्यक्तित्व की इस विलक्षणता को शायद ऐसी कोई अलग स्वीकृति न भी हो, लेकिन इस रचना के दौरान मुझे भगवत्ता के रचना - स्वामित्व का स्पष्ट साक्षात्कार हुआ है। इसे मैं कैसे झुठला सकता हूँ ? मूलत: महावीर का जीवन हमें तीन सुस्पष्ट विभागों में उपलब्ध होता है । प्रथम विभाग : पूर्व-जन्म कथा से आरम्भ हो कर, यहाँ उनका अवतरण, उनका तीस वर्ष व्यापी कुमारकाल, और अन्तत: उनका गृह त्याग, जिसे महाभिनिष्क्रमण कहते हैं । प्रथम खण्ड में यह विभाग सहज ही सिमट गया है । द्वितीय विभाग : गृह-त्याग के उपरान्त महावीर का साढ़े बारह वर्ष व्यापी दीर्घ और दारुण तपस्याकाल, और उसकी चरम परिणति में उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति । यह भी सहज ही द्वितीय खण्ड में समाहित हो सका है । तृतीय विभाग : कैवल्य-लाभ के उपरान्त श्रीभगवान् का तीर्थंकर हो कर धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए अनवरत अभियान: प्रजाओं के पास जाना, गुमराह आत्माओं का अनायास आवाहन, बिना किसी इरादे के वीतराग भाव से सृष्टि के कण-कण, जीव-जीव, जन-जन को अपने परिपूर्ण और मुक्तिदायक प्रेम से आप्लावित करना, उन्हें उद्बोधित और सम्बोधित करना उनके तरणोपाय का उपदेश ( धर्म देशना ) निसर्गतः तीर्थंकर के श्रीमुख से उच्चारित होना : एक ऐसी सार्वभौमिक भाषा में, जो मनुष्य ही नहीं, प्राणि मात्र को उनके अपने हृदय में ही स्वयम् रूप से अवबोधित हो जाती है : जिसे 'दिव्यध्वनि' कहा गया है । तीर्थंकर का यह धर्मचक्र प्रवर्तन तृतीय खण्ड में समाहित न हो सका । इस विभाग की उपलब्ध सामग्री की सम्भावनाओं को जब मैंने अवगाहा, तो पाया कि उसमें कई ऐसे जन्मान्तरीण और वर्तमान व्यक्तित्व, चरित्र, पात्र और कथानक थे, जिनमें गहरे उतरने, अन्वेषण करने, रचने की अपार सम्भावना और गुंजाइश थी उनके सम्मुख मेरा सोचना, या उन्हें योजनाबद्ध करना, इतना छोटा पड़ गया, कि सोच समाप्त हो गया, और पात्र तथा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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