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वैशाली की पराजय हुई, तो क्या वह महावीर की ही पराजय न होगी? यदि वैशाली का पतन हुआ, तो क्या वह महावीर का ही पतन न होगा?'
'जानो महानायक सिंहभद्र, महावीर जय और पराजय एक साथ है। वह पतन और उत्थान एक साथ है। वह इष्ट और अनिष्ट एक साथ है। वह जीवन और मरण एक साथ है। वह नाश और निर्माण एक साथ है। सारे द्वंद्वों के बीच एकाग्र और द्वंद्वातीत खेल रहा है महावीर !'
'इस द्वंद्वों के दुश्चक्र में वैशाली का कोई तात्कालिक भविष्य ? कोई अटल नियति ?'
'केवल महावीर, और सब अविश्वसनीय है ! जय-पराजय, उत्थान-पतन, प्रलय और उदय के इस नित्य गतिमान चक्र में, तुम कहीं उँगली रख सकते हो सेनापति?'
'रख सकता, तो सर्वज्ञ महावीर से क्यों पूछता वैशाली का भविष्य ?' 'वह तुम्हारे चुनाव और पहल पर निर्भर करता है, सेनापति !' 'वैशाली का सेनापति निश्चय ही उसकी विजय चुनता है, उसका उत्थान चुनता है।' _ 'तो तुमने महावीर को नहीं चुना? शस्त्र और सैन्य की शक्ति को चुना। अन्तहीन द्वन्द्व और संघर्ष को चुना। जानता हूँ, महावीर के यहाँ से प्रस्थान करते ही, तुम्हारे परकोट और भी भयंकर शस्त्रों से पट जायेंगे। तुम्हारे द्वार और भी प्रचण्ड वज्र के शूलों और साँकलों से जड़ दिये जायेंगे। ...'
और हठात् एक चीखती आवाज़ ने प्रतिसाद दिया : 'नहीं नहीं नहीं नहीं, ऐसा हम नहीं होने देंगे। या तो वैशाली में महावीर का शब्द राज्य करेगा, नहीं तो हम सर्वनाश का ताण्डव मचा देंगे। महावीर का धर्मचक्र यदि वैशाली का परिचालक न हुआ, तो हे सर्वचराचर के नाथ, वैशाली के मस्तक पर सर्वनाश मँडला रहा है। त्राण करो, त्राण करो, त्राण करो हे परित्राता !'
महाचण्डी रोहिणी की इस आर्त पुकार में वैशाली की लक्ष-लक्ष आवाजें एकाकार हो गयीं।
और गन्धकुटी के रक्त कमलासन में ज्वालाएँ उठती दिखायी पड़ीं। उस पर आसीन, विश्व के प्रलय और उदय के नाटक का नित्य-साक्षी महेश्वर महावीर गर्जना कर उठा :
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