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________________ "बैठते ही बेशुमार कामों और दायित्वों के मधुप-गुंजन से मैं बेतहाशा आक्रान्त हो गया। मेरा सारांशिक कृतित्व 'अनुत्तर योगी' पड़ा रह गया, और 'नवनीत' मुझ पर सवार हो गया। इस चिन्ता से मेरा दिमाग एक भयंकर उलझन, दुविधा और परेशानी में पड़ गया। मेरी नींद उड़ गई। विरमना और सोना-बैठना तक मुहाल हो गया। मेरा नाड़ी-चक्र चरमराने लगा। "तभी एक रात बिस्तर पर लेटते ही, मुझ पर ध्यान-तन्द्रा-सी छा गई। और उसमें अपनी ही गहराई में से आती एक आवाज़ सुनाई पड़ी : 'नवनीत' और अनुत्तर योगी में कोई विरोध या भिन्नता नहीं है। 'नवनीत' को 'अनुत्तर योगी' का ही एक लोक-व्यापी प्रस्तार (प्राजेक्शन) होना है।" 'नवनीत' अनुत्तर योगी महाविष्णु का ही व्यासपीठ होगा, महासत्ता के नवयुगीन प्रकाश का विश्व-व्यापी आकाशवाणी केन्द्र होगा। हर चीज़ अपने नियत समय पर घटित होती है। 'अनुत्तर योगी' भी अपने नियत समय पर ही समाहित हो सकेगा। 'नवनीत' उसमें बाधक नहीं, उसका परिपूरक और सम्वाहक शक्ति-ध्रुव सिद्ध होगा।..." यह एक अन्तरबोधजन्य स्फुरणा थी जिसमें सर्वतोमुखी समाधान था। “सो द्वंद्वमुक्त हो कर मैं एकाग्र भाव से 'नवनीत' में जुट गया। 'नवनीत' के मेरे सम्पादन के इन अठारह महीनों में उपरोक्त भविष्यवाणी प्रमाणित हुई है। . प्रस्तुत प्रश्न फिर भी था कि 'अनुत्तर योगी' कब, कैसे पूरा हो? और सहसा ही एक रात फिर ध्यान-तंद्रा में उत्तर मिला : “अनुत्तर योगी' के चतुर्थ खण्ड के चार सौ टंकित पृष्ठ तैयार हैं : पूर्वगामी हर खण्ड के बराबर ही वॉल्यूम तुम्हारे हाथ में है : इसे प्रेस में जाने दो ! चतुर्थ खण्ड निकल जाये, और एक और अन्तिम पंचम समापन-खण्ड करना होगा।" एक तलवेधक आघात के धक्के से मैं जाग उठा। एक स्वतंत्र पंचम खण्ड और करना होगा ? "इस कल्पना से ही मैं थर्रा उठा। मगर एक अटल अनिर्वार नियति सामने खड़ी थी, और उसे समर्पित होने के सिवाय और कोई चारा मेरे लिए नहीं था। मुझे सहज ही उद्बोधन मिला, कि चार का अंक महावीर को मंजूर नहीं : पांच के मांगलिक यांत्रिक-अंकासन पर ही उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की परिपूर्ण मूर्ति उभर सकती है। यह उद्बोधन मुझे अचूक समाधानकारी प्रतीत हुआ। और चतुर्थ खण्ड प्रेस में दे दिया गया। लेकिन समानान्तर ही 'नवनीत का दैनिक दायित्व-भार था, और शरीर मेरा पहले से ही टूटा, निढाल और अस्वस्थ चल रहा था। दोहरेतिहरे परिश्रम के चलते उसके स्वस्थ होने का सवाल ही नहीं उठता था। तिस पर निजी जीवन में ऊपरा-ऊपरी बेशुमार विपत्तियां टूटती गईं। नवम्बर ८० में पत्नी को हृदय-रोग का भयंकर दौरा पड़ा और वह मरते-मरते बची। सो ‘अनुत्तर योगी' की प्रेस कॉपी जांचने और फिर उसके प्रूफ-संशोधन के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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