SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खैर, इसकी कैफ़ियत जो भी हो, मगर इस निढालता के चलते किताब रुक गई। सन् ८० के मई महीने में तबीयत सम्हली, और २३ मई को फिर रचना पर बैठने का संकल्प किया था, कि एक विचित्र अकस्मात् घटित हुआ। ठीक २३ मई ८० की सुबह मैंने 'भारतीय विद्याभवन' में 'नवनीत' के सम्पादकीय आसन पर अपने को बैठा पाया। किताब रुक गई, 'नवनीत' शुरू हो गया। महान मुन्शी के जीवन-काल में 'भारती' का सम्पादन किया था, और भवन ने जब 'नवनीत' लिया, तो मुझे विवश कर दिया, कि 'भारती' में जो विज़न उतरा था, उसे 'नवनीत' में फिर जीवन्त करना होगा। ..."मानो कि किसी मानुषोत्तर आदेश और विधान तले मैं 'नवनीत' करने को बाध्य कर दिया गया। बाध्यता बाहरी से अधिक भीतरी थी। पूज्य मुन्शीजी 'भारती'-काल के मेरे सम्पादन-कार्य से बेहद प्रसन्न थे। वे मेरे विजन और चिन्तन दोनों के अनन्य प्रेमिक हो गये थे। उन्हें स्पष्ट प्रतीति हो गई थी कि भवन की पत्रिका 'भारती' को जिस तरह के सम्पादक की ज़रूरत थी, वह उन्हें मुझ में मिल गया है। भारत की ऋतम्भरा प्रज्ञा को हमारे समय की भाव-चेतना, भाषा और रूपाकारों में ढालने का काम अनायास ही मुझ से हुआ था, जो कि मुन्शी की दृष्टि में भवन की एक उपलब्धि थी। कई दशकों से हिन्दी की पत्रिकाएँ निरी साहित्यिक हो कर रह गई थीं। सर्वतोमुखी जीवन-चिन्तन और सांस्कृतिक मूल्य-बोध उनमें लुप्तप्राय था! 'भारती' में मैंने साहित्य, संस्कृति और जीवन-दर्शन का एक स्वाभाविक समन्वय किया था। पश्चिम में निरन्तर विकासमान ज्ञान-विज्ञान और कला-रूपों को मैंने. 'भारती' में, भारतीय मनीषा के नित-नव्यमान प्रज्ञास्रोतों से संयुक्त किया था। यह चीज़ समूचे भारतीय साहित्य, कला और पत्रकारत्व में तब भी ग़ायब थी, और आज भी लक्षित नहीं होती। इसी कारण जब भवन ने 'नवनीत' लिया, तो फिर मेरी पुकार हुई। मैंने अपनी लाचारी निवेदन की कि 'अनुत्तर योगी के चलते यह भार उठाना मेरे नाड़ीचक्र से परे की बात है। मगर मेरे पीछे द्वार बन्द कर दिया गया था, और मुझ से कहा गया कि अब आप छटक कर जा नहीं सकते। भवन के संचालकों के उस स्नेहपूर्ण आग्रह के सम्मुख मैंने अपने को विगलित और समर्पित पाया। ऐसी आत्मीयता, और किसी के काम की ऐसी कद्रदानी आज भारत में अन्यत्र दुर्लभ है। "मुझे महान मुन्शी के, अपने प्रति वल्लभ-भाव का स्मरण हो आया। उन्होंने मुझे चेतना-स्तर पर अपने साथ तदाकार देखा था। ऐसा विरल ही होता है, यह मुन्शीजी ने अनुभव किया था। इसी से 'भारती'-काल के उन पांच वर्षों में मुन्शी और भवन के परिचालकों ने मुझे एक राजपुत्र की तरह लाड़-प्यार और गरिमा के साथ भवन में रक्खा । यह सब इतने आत्मिक घनत्व का दबाव था, कि मैं नकार न सका, और 'नवनीत' पर आ बैठा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy