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'कई छोर एक साथ हैं, राजेश्वर । हर बात के, हर भाव के, हर वस्तु के और हर व्यक्ति के। यही तो संकट है। एक छोर पर टॅग गये, कि चीज से गायब । खेल में यही सुविधा है, कि सारे छोर एक साथ उसमें टकराते हाथ हैं। और उस टकराव में से निकलते ही जाने का जो मज़ा है, वह कह कर बताना मुश्किल है, राजन् !'
'तुम्हारी बात मेरे पल्ले नहीं पड़ रही, अभय।'
'कुछ बात हो, तो पल्ले पड़े न? बात कोई है ही नहीं, केवल वात है। वात माने हवा। और हवा में बटोरने को क्या है, केवल बहते ही तो जाना है ! ...'
चण्ड प्रद्योत खूब जी खोल कर हंस पड़े। वे बह आये। ...अनायास आगन्तुक कन्याओं के कन्धों पर हाथ रख, वे बड़े सहज भाव से अभय राजा के साथ, महादेवी चेलना के महल की ओर चल पड़े।
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