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सारी बातों की बात तो यह है, आयुष्यमान अभय, कि जो तुम ने कहा, कर दिखाया। मैं राजा हूँ मैं राजा हूँ मैं प्रद्योत हूँ.. मैं राजा हूँ-आदि मैं चिल्लाता रहा। और तुम मुझे ठीक उज्जयिनी की छाती पर से खुले आम बाँध लाये। मुश्किल यह पड़ गई है, कि इसे कपट भी कहूँ, तो कैसे कहूँ। दुनिया का कौन कपट तुम्हारे सरलपन को छल सकता है ?'
__ 'अरे जीजाजी, आप तो मेरे कूट-कौशल पर भी मोहित हो गये । मुझ से बड़ा कूट आप को कहाँ मिलेगा। "पर्वत-कूट, हिमवन्त पर्वत का एकाकी कूट ! कितना दुर्गम, अगम, सर्पिल चक्रिल राहें। आसमान के कँगूरों पर पैर धर कर चलना! ऐसे जटिल और हवाई आदमी को आपने सरल कैसे समझ लिया?'
'हवा से अधिक सरल तो कुछ भी नहीं, अभय राजा। पर अगम्य है वह। उसे कोई पकड़ पाया क्या आज तक ?'
'हाँ, महावीर ने पकड़ लिया है। मेरी साँस पर आ बैठा है वह । कुम्भक में मेरी हवा बाँध देता है ! इन दिनों उसी से छुटकारा पाने की फ़िक्र में हूँ!'
'महावीर ने तुम्हें पकड़ा है, या तुमने महावीर को ? यही एक पहेली है!'
'सत्ता के दोनों ही ध्रुव समान रूप से सत्य और अनिवार्य हैं, मौसा। उन दोनों के चुम्बकीय सन्तुलन पर ही तो ब्रह्माण्ड ठहरा है, महाराज !'
'अरे तुम तो तत्त्वज्ञानी भी हो, आयुष्यमान् ! तुम्हारे आयामों का अन्त नहीं।'
'तत्त्वज्ञानी नहीं, तूफ़ानी कहें, राजन् । तूफ़ान, जो सारी बाधाओं को तोड़ता हुआ, सब कुछ को उड़ा ले जाता है। तूफ़ान में जीता हूँ, ताकि त्रिकाली ध्रुव का भान बना रहे । और उस पर टिके बिना चैन न पा सकूँ !'
तभी अचानक दो सुन्दरी कुमारियाँ, उज्ज्वल वेश में वहाँ उपस्थित हुई। प्रद्योतराज ने उन्हें देखते ही पहचान लिया। वे कुल-कन्याएँ महारानी चेलना देवी के महल में, अवन्तीनाथ को भोजन पर लिवा ले जाने आईं थीं। प्रद्योतराज उन्हें देख कर कुछ लजा-से गये।
'संकोच का कारण नहीं, राजेश्वर, ये कन्याएँ आप के बाल चापल्य पर मुग्ध हैं। यही आपको पहुँचाने उज्जयिनी जायेंगी आपके साथ !'
'अभय राजा, मुझे जीने दोगे या नहीं ?'
'अपनी कामना का सामना करें, राजन् । जीवन और मुक्ति के बीच की ग्रंथि वहीं खुलती है। मुंह छुपा कर कब तक जियेंगे?'
'तुम कहना क्या चाहते हो, अभय ? किसी बात का कोई छोर भी है ?'
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