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________________ ३३० लोगों ने राजा की इस आर्त पुकार पर कोई ध्यान न दिया । उन्होंने तो यही समझा, कि श्रेष्ठी हर दिन के नियमानुसार अपने पागल भाई को वैद्य के घर ले जा रहा है । और वैसा ही तो प्रलाप कर रहा है : 'मैं राजा हूँ मैं प्रद्योत हूँ ।' कपट- श्रेष्ठी ने एक-एक कोस पर, वेगीले अश्वों वाले रथ पहले से ही नियोजित करवा रक्खे थे । उन्हीं के द्वारा अनुक्रम से महा प्रतापी चण्डप्रद्योत को ठीक राजगृही नगरी में पहुँचा कर, अभय राजकुमार के महल में महामान्य अतिथि की तरह बड़े सम्मान - सम्भ्रम से रक्खा गया । प्रद्योतराज समझ गये, कि किसने यह मज़ाक़ उनके राजाधिराजत्व के साथ किया है । ऐसी हिम्मत पृथ्वी पर केवल एक ही व्यक्ति की है : वह जो कहता है, वही कर के दिखा देता है ! ....ठीक समय पर अभय राजकुमार ने कक्ष में पहुँच कर अवन्तीनाथ के चरण छुए, और मृदु मधुर स्वर में बोला : 'अरे वाह वाह जीजा-मौसा, आखिर आपकी पहुनाई हमारे यहाँ हुई ! आपकी चरण-धुलि मेरे कक्ष में पड़ी । हम गौरवान्वित हुए । यों तो आप आते नहीं । क्यों कि मगध में आप जब भी आये, आक्रमणकारी हो कर आये। तो आज आपको मेहमान बना कर ले आना पड़ा मुझे ! 'मेहमान बना कर, या बन्दी बना कर, अभय राजा ?' 'आपको बन्दी बनाया कामिनी के कटाक्ष ने मौसा। मैं तो आपको उस नागपाश से छुड़ा लाया । और मैं आपको उज्जयिनी के सरे बाज़ार लाया । आप ने पुकार कर सारी उज्जयिनी से कहा कि मैं राजा हूँ मैं प्रद्योत हूँ ! ...लेकिन आप पर किसी ने विश्वास ही न किया, तो मैं क्या करता। मैं तो आपको बन्द कर, क़ैद कर, चोर राह से न लाया । राजमार्ग से लाया । 'मैं राजा, मैं प्रद्योत पुकारते हुए आप को लाया । और कामिनी के कटाक्षरज्जु से तो आप स्वयम् ही बँधे । वह बन्धन बाँधने वाला मैं कौन, और खोलने वाला भी मैं कौन ?' ... 'अनुत्तर खिलाड़ी हो तुम, अभय राजा ! तुम से शत्रुत्व कैसे किया जाये, तुम से कैसे लड़ा जाये, यही एक प्रस्तुत समस्या है। मगध पर अब आक्रमण कर के भी कोई क्या पा सकता है । उसके द्वार तो तुमने चौपट चारों दिशाओं पर खोल दिये हैं ! ' हरसिंगार के झरते फूलों की तरह हँस कर अभय बोले : 'अरे मौसाजी, आये हैं तो कुछ दिन मगध पर राज करिये ! और सुन्दरियों की भी यहाँ कमी न रहेगी। राजगृही की जनपद - कल्याणी सालवती, आप के साथ उज्जयिनी के केतकी - कुंजों में बितायी रातें भूल नहीं सकी है ! उसी की ख़ातिर रह जाइये कुछ दिन ! ' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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