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________________ ३२७ विज्ञान मुझे पता नहीं, मैं स्वयम् चकित हूँ देख कर कि यह कौन सर्वसत्ताधीश मेरी रक्त-शिराओं में नित नये खेल रचा रहा है। ... 'सबेरे ही प्रद्योतराज बड़े कृतज्ञ और हर्षित भाव से मेरे पास दौड़े आये । बोले -- 'विचित्र हो तुम, देवानुप्रिय अभयदेव ! मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता । और तुम भी मानो छूटना नहीं चाहते । तुम्हारे साथ कैसे बरतूं, क्या सुलूक करूँ, समझ में नहीं आता। फिर माँग लो एक और वरदान । जो माँगोगे दे दूंगा, उज्जयिनी का सिंहासन भी । लेकिन तुम्हें छोड़ूंगा नहीं । तुम्हें सदा मेरे अधीन रहना होगा ।' मैं सदा की तरह एक ज़ोर का ठहाका मार कर हँस पड़ा। फिर बोला : 'सुनें अवन्तीनाथ चण्डप्रद्योत, आज मैं अपने चारों धरोहर वरदान एक साथ माँगे लेता हूँ । आप अनलगिरि हाथी पर महावत बन कर बैठें। और मैं पीछे अम्बाड़ी में शिवादेवी के उत्संग में बैठूं । फिर आप अपने तृतीय रत्न अग्निभीरु रथ को तुड़वा कर, उसके काष्ठ से चिता रचवायें। और तब हम तीनों एक साथ उस चिता पर चढ़ जायें ! .... ..... सुन कर महाप्रतापी चण्डप्रद्योत को लगा, कि उसके पैरों के नीचे से धरती हट गई है । वह अभी-अभी एक तिमिरान्ध अतल पाताल में समा जायेगा । ''उसने दोनों हाथों की अंजलि जोड़ कर, मेरे आगे घुटने टेक दिये । बोला : 'क्षमा करो अभय राजा, तुम्हें बाँध कर रख सके, ऐसी शक्ति सत्ता में विद्यमान नहीं । तुम्हें बाँध ही न पाया, तो कैसे कहूँ, कि तुम्हें मुक्त करता हूँ ! -- ' चलते समय मैंने अपने घोड़े की रक़ाब में पैर रख छलाँग मारते हुए कहा : 'आपने तो मुझे धर्म - छल से बँधवा मँगवाया, प्रद्योतराज । और वह भी कुटिनी वेश्याओं द्वारा । आपके इस शूरातन की बलिहारी हैं ! लेकिन अब जगत् एक और भी शूरातन देखेगा। मैं आप को सब की आँखों आगे, दिन के धौले उजाले में, ठीक आप के नगर के चौक में रो, सरे बाज़ार हर ले जाऊँगा । और आप स्वयम् उस समय चिल्ला-चिल्ला कर उद्घोषणा करते जायेंगे -- मैं राजा हूँ. मैं प्रद्योत हूँ मैं राजा हूँ ! - ---देवानांप्रिय अभय राजकुमार ने घोड़े को एड़ दी, और वे धुर पूर्व के महापथ पर घोड़ा फेंकते हुए, क्षण मात्र में ही जाने कहाँ ओझल हो गये । ... ''मैं एक झटके के साथ योग - तन्द्रा से बाहर आ कर पुकारता ही रह गया : 'अरे अभय दा, फिर कब तुम से भेंट होगी। एक बार बता जाओ न ! - मगर उत्तर कौन देता ? -''और हठात् यह क्या देखता हूँ, कि मेरी शैया में गहरी निद्रा में सोये हैं अभय राजकुमार ! कृष्ण-कमल में चाँदनी अपनी किरणों से 'जल- तरंग' बजा रही है । " मैं तब कहाँ था, कौन था, मुझे नहीं मालूम ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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