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________________ बावेला--सत्यानाश ! अरे भाई, मैं कोई जादूगर तो नहीं, मांत्रिक-तांत्रिक या परित्राता नहीं। फिर भी मुझे जाने क्या सूझा, सो मैंने तपाक से कहीं : 'सुनें महाराज, जैसे विष का उपाय विष है, वैसे ही अग्नि का निवारण केवल अग्नि है। तत्काल कहीं और आग लगवा दीजिये, किसी निर्जन में, तो ये अग्निदेव उस अर्घ्य से शान्त हो जायेंगे।' .. विचित्र हुआ, कि वह उपाय फ़ौरन किया गया, और उज्जयिनी का अग्निकाण्ड देखते-देखते एक दम शान्त हो गया। राजा प्रद्योत ने प्रसन्न हो कर मुझ से तीसरा वरदान माँगने को कहा। मैंने कहा : 'इसे भी मेरी धरोहर रख लें अपने पास, ठीक समय पर मांग लूंगा आप से।' प्रद्योतराज की बुद्धि से बाहर हुआ जा रहा था, मेरा यह सारा क्रीड़ा-व्यापार। उनकी हर समस्या मैंने सुलझा दी, तो मुझ पर वे सन्देह भी कैसे कर सकते थे। अभय से पा रहे थे वे केवल अभयदान, और निर्भय होते जा रहे थे। मन उनका नर्म, नम्य और निःशंक होता चला जा रहा था। सो मुझ पर शंका करना उनके बस का नहीं रह गया था।.... 'उन्हीं दिनों एक और संकट अवन्ती पर अचानक टूट पड़ा। कोई अश्रुतपूर्व महामारी चल पड़ी, और सारे अवन्ती देश में व्याप गई। हर दिन जाने कितने मानुष और पशु का भोग वह लेने लगी। प्रद्योतराज फिर मेरे पास दौड़े आये : 'भाई अभय राजा, तुम्हारे सिवाय त्रिलोकी में इस महामारी का निवारण कौन कर सकता है। शीघ्र उपाय बताओ, भाई।' मैं तो कुछ सोचता नहीं, वीरेन् । ठीक समयं पर कोई चुम्बक-सा मुझ में कौंध उठता है । और फिर मुंह से जो निकल जाये, वही कारगर उपाय हो जाता है। मैंने कहा : 'महाराज, परेशानी का कारण नहीं । अभी आप जरा अपने अन्तःपुर में जायें । आपकी सारी रानियाँ, सोलहों सिंगार किये आप की प्रतीक्षा में हैं। उनमें से जो रानी अपनी दृष्टि से आप को जीत ले, उसी का नाम ज़रा मुझे बता जायें।...' ___'राजा तत्काल अपने अन्तःपुर में गया । "शिवादेवी के कटाक्ष से वह पल मात्र में ही विजित हो गया। प्रद्योत ने आ कर मुझे वह नाम बता दिया ! ...'ओ, शिवा मौसी ! उनका कटाक्ष अमोघ है, महाराज। उनसे तो आप सदा हारे हैं। वे हैं सर्व मानमर्दिनी, सर्व असुरदलिनी महाकाली। तो उन्हीं महारानी शिवादेवी के हाथों कूरान्न की बलि दिलवा कर, भूखे भूतों की पूजा कराइये, उनकी जनम-जनम की दमित बुभुक्षा-वासना का शमन कराइये। उस बलि को ग्रहण करने के लिये, जो भूत सियाल के रूप में सामने आये, उसी के मुख में महादेवी कूरबलि का क्षेपण कर दें। फिर देखिये क्या होता है !' .."अपना तो कोई तीर कभी नाकाम होता नहीं, वीरेन । क्यों कि मैं सोचता नहीं, तत्काल कहता और करता हूँ। शिवादेवी की कूरबलि से वह अशिव महामारी रातोंरात शान्त हो गई। कैसे यह हो गया, इसका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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