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उसके जाने कितने दूरगामी और कालभेदी परिणाम हुए, इसका लेखा-जोखा किसके पास है। तुम्हारा जीवन भी तो किस कारागार से कम है, वीरेन! तुम्हारे सारे नाड़ी-चक्र को, जाने कितनी ही साँकलें एक साथ जकड़े हुए हैं। फिर भी हर दिन तुम जाने-अनजाने, न मालूम कितने खेल अपनी आँखों, शब्दों, प्यारों और प्रहारों से ऐसे खेलते रहते हो, कि उससे इतिहास की नाड़ियाँ झनझनाती रहती हैं, उसके हृत्स्पन्दन में आँधियाँ और वसन्त एक साथ आते-जाते रहते हैं। काश तुम जान पाते, वीरेन, कि तुम कौन हो? तुम समय में नहीं, समयसार में घटित हो रहे हो। तुम घट में नहीं, घटाकाश में सक्रिय हो। तुम इतिहास में नहीं, उसके उत्स में चल और बोल रहे हो। इसी से तुम सदा अनपहचाने रहोगे पृथ्वी के पटल पर। केवल तुम्हारा निर्नाम, निश्चिन्ह संचार महाकाल की धारा में प्रमाणित होता रहेगा।' .
___ और सहसा ही वह आवाज़ खामोश हो गई। .. लेकिन ओ अभय दा, तुम ने कथाधारा बीच में ही क्यों तोड़ दी? बताया नहीं तुमने, कि उस सोने के पिंजड़े से तुम कैसे, कब मुक्त हुए? क्या फिर तुम राजगृही नहीं लौटे ? क्या हुआ तुम्हारा ?'
ठीक चाँद के नीचे कृष्ण-कमल की नीलिमा फिर प्रोभासित हो उठी। सारी छत में एक नीला-दूधिया-सा उजाला छा गया। और सुनाई पड़ा : ___ इतनी बड़ी बात हो जाने पर भी, बहुत छोटी बात पूछी तुमने, वीरेन्! पिंजड़े की भली कही। प्रद्योत की क्या ताब थी, कि वह मुझे पिंजड़े में बन्द रखता। ऐसे तो कई कारागार सिर्फ़ चतुरंग खेलने के लिये, मैं खुद रचता और भंग कर देता हूँ। और पिंजड़ा भला कहाँ नहीं है। यह अस्तित्व, इतिहास, जीवन के चढ़ाव-उतार, सारा तमाम तो एक नित नये पिंजड़ों का सिलसिला है। एक प्रकाण्ड कारागार, जिसे हम खुद रचते हैं क़दम-कदम पर, और खुद ही तोड़ते चलते हैं। दूसरी कोई ताक़त नहीं, हम से बाहर, जो हमें कैद कर सके। तुम्हारी पीड़ा को मैं समझ रहा हूँ, वीरेन् । तुम मुक्त हो हर पल, फिर भी अपने को बन्दी मानने के भ्रम में पड़े हो । जान कर भी, अनजाने बने हो! खिलाड़ी जो ठहरे। “खैर, छोड़ो यह बात । ___ 'तुम्हें जल्दी है अपनी कथा आगे बढ़ाने और पूरी करने की। तो प्रासंगिक कथा को समापित करूँ, ताकि तुम आगे बढ़ सको।'
"एक और भी लीला तब उज्जयिनी में हुई। जाने किस कारण से उस महानगरी में भीषण आग लग गई। आकाश चूमती लपटें मानो अभीअभी सारी उज्जयिनी को लील जायेंगी। प्रद्योतराज फिर मेरे पिंजड़े के द्वार पर हाज़िर दिखाई पड़े। बोले-'भाई अभय, लाखों प्राण इस सत्यानाशी अग्निकाण्ड में हवन हो रहे हैं। कोई उपाय बताओ, कि यह महाकृत्या शान्त हो सके।' मुझे बरबस हंसी आ गई। मामूली-सी बात का इतना बड़ा
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