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________________ ३२४ - 'सुन कर वासवी की मुग्धता भीषण क्रोध में उबल पड़ी : 'अरे ओ कोढ़ी, तेरा ऐसा दुःसाहस ! तू स्वयम् कुष्ठी है, यह भूल गया, और मुझे कानी कहता है ? अरे मेरी आँखें देख लेगा, तो अपना संगीत भूल जायेगा । "ले देख और जान, कि तेरा संगीत अधिक मोहक है, या मेरी आँखें !...' ___..कह कर तैश में वासवदत्ता ने एक झटके से यवनिका हटा दी। दोनों एक-दूसरे को देख कर स्तब्ध हो रहे। वासवदत्ता के सौन्दर्य में उदयन का संगीत, छोर पर पहुँच कर डूब गया। उसके कुँवारे वक्षोजों में उदयन की मातंग-विमोहिनी वीणा आपोआप बजने लगी। और वासवदत्ता का सौन्दर्य, उदयन के संगीत में अधिक-अधिक अनावरण होता गया : वह एक विदेहिनी लौ मात्र हो कर रह गयी।..." 'उस दिन के बाद से उदयन और वासवी एक प्राण, एक आत्म, एक तन हो कर जीने लगे। संगीत की सागरी शैया में, उनके शरीर परस्पर में आरपार लहराने लगे। वे निर्भय और निर्बाध मना हो कर, सारी मर्यादाओं से परे, अपना युगल जीवन जीने लगे। यह गोपन रहस्य, वासवदत्ता की एक विश्वासपात्र धात्री दासी के सिवाय, और कोई नहीं जानता था।" ___ 'उन्हीं दिनों प्रद्योतराज का अनलगिरि हाथी, एकदा अचानक साँकलें तोड़, महावत को धराशायी कर भाग निकला। वह मदमत्त महाहस्ति सारे नगर को रौंदता हुआ, भारी ध्वंस करने लगा। आतंक के मारे सारा नगर जनशून्य हो गया। तब फिर प्रद्योतराज को याद आया मैं-अभय राजकुमार। सो मेरे पिंजड़े पर आ कर पूछा : कि किस उपाय से इस पागल हाथी को वश किया जाये ? मैंने उनसे कहा : कि तुम्हारे महल में ला बिठाया है मैंने गन्धर्वजयी उदयन को। केवल उसका संगीत ही इस गजेन्द्र की महावासना को शान्त कर सकता है । सो प्रद्योत के अनुरोध पर उदयन ने, महल के वातायन पर वासवदत्ता के साथ बैठ कर, युगल वीणा-वादन किया। अनलगिरि हाथी खिंचा चला आया उनकी ओर। और वातायन के ठीक नीचे आ कर वह शान्त, स्तब्ध हो कर प्रणत मुद्रा में झुक गया । 'तब प्रद्योतराज ने मुझ से आ कर कहा, कि मैं छुटकारा पाने के सिवाय, एक और कोई भी वरदान माँग लूं। मैंने कहा--अभी इस वरदान को भी मेरी धरोहर रूप रखो, राजन्, समय आने पर माँग लूंगा।" ____ 'इसके बाद किस तरह अनिल-वेगा हस्तिनी पर, वत्सराज उदयन वासवदत्ता का हरण कर ले गया, वह कथा तो तुमने लिख ही दी है, वीरेन् ! अवन्तीनाथ के उस सुवर्ण-मढ़े फ़ौलादी पिंजड़े में कैद रह कर ही, मैंने इतिहास को जाने कितनी जगह से तोड़ा, और मनचाहा मोड़ा, और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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