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________________ ३२३ उदयन की निगाह जाने कब से लगी है। उसी का नकली काष्ठ रूप बनवा कर विन्ध्याचल में छुड़वा दो, और वही उदयन को मोहित कर बाँध लायेगा।'' ____ 'कैसे उस नकली हाथी द्वारा उदयन को पकड़वा मंगवा गया, वह कथा तो तुमने लिखी ही है, वीरेन । पर आज जान लो, कि अभय की युक्ति से ही उदयन को तब बन्दी बना कर लाया जा सका था।" 'हर कथा के भीतर, एक और अन्तर-कथा है। तो तब की एक अन्तरकथा अब तुम्हें बताता हूँ। तुमने जो कथा लिखी है तब की, उसमें एक और भी फल्गू बह रही थी, वह तुम से ओझल रह गई। ..जानो वीरेन, यह उदयन भी तो तुम्हारी-हमारी जाति का ही है न। खेलने के सिवाय और कोई काम नहीं, प्यार करने के सिवाय और कोई व्यापार, विहार, व्यासंग नहीं। सो बन्दी हो कर उदयन, एक ज़ोर का ठहाका मारता हुआ ही प्रद्योत के सामने आया। अपने सुवर्ण-पिंजर में से मैं सारा तमाशा देख रहा था। प्रद्योत ने भी हँस कर ही, उसे विजय-गर्व के साथ अपने निकट बैठाया। फिर कहा कि --मेरे एक एकाक्षी पुत्री है, एक आँखवाली लड़की। कह लो कि कानी है। उसे ब्याहेगा भी कौन। उसके कंठ में दिव्य संगीत लहरी है। उसे गान्धर्वी कला सिखाओ, देवानुप्रिय उदयन । तुम तो गन्धर्वो के भी मनमोहन हो। तुम्हारे सिवाय यह परा विद्या वासवी को और कौन सिखा सकता है! 'उदयन को तत्काल छुटकारे का कोई उपाय न सूझा। उसने प्रद्योत का प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार लिया। प्रद्योत ने कहा-मेरी दुहिता कानी है, सो तुम उसे कभी देखना नहीं, वर्ना वह लज्जित, ग्लान और खिन्न हो जायेगी। उधर अन्तःपुर में जा कर प्रद्योत ने अपनी बेटी वासवदत्ता से कहा-कि तुझे गान्धर्वी कला सिखाने को जो गन्धर्व-गुरु आया है, वह कुष्ठी है, सो उसे प्रत्यक्ष कभी देखना नहीं। देख लेगी तो भयभीत और जुगुप्सित हो कर, उससे विद्या न सीख पायेगी। वासवी ने पिता की शर्त स्वीकार कर ली। ___'अन्तःपुर में, वासवी के कक्ष में एक सघन रेशमीन यवनिका डाल दी गई। और बीच में यह आवरण रख कर, वासवी उदयन से संगीत-कला सीखने लगी। उस दौरान वह उदयन की संगीत-मोहिनी से ऐसी विकल और मोहित हो गई, कि उसका जी चाहा कि वह उदयन को देखे। देखे बिना प्राण को विराम नहीं । "एक दा सीखते समय वह इतनी सम्मोहित हो गई, कि शून्यमनस्क और उदास हो आई। सीखना दूभर हो गया। वीणा चुप हो गई। कण्ठ-स्वर डूब गया। विद्या की धारा भंग हो गई। उदयन इस धारा-विक्षेप से सहसा ही क्षुब्ध हो उठा । उत्तेजित हो कर बोल पड़ा : 'अरी ओ कानी, तूने स्वर-भंग कर दिया ! कहाँ लगा है तेरा मन ? तू मेरी संगीत-सरस्वती का अनादर करेगी री? ढीठ कहीं की!' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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