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मैं सहज ही प्रत्यायित हुआ, और एक अकथ्य सुख के पुलक- कम्पनों में करने लगा। बरबस ही मेरे मुँह से निकला :
'मुझे भी तो प्रायः ऐसा ही लगा है, अभय राजा, कि तुम्हारी कथा नहीं, अपनी ही कथा लिख रहा हूँ । लेकिन मैं यह वासुदेव कैसा ? '
'देवानांप्रिय वीरेन्द्र वासुदेव ! '
‘अरे अरे, मेरा उपहास न करो, अभय दा, मैं लज्जा से मरा जा रहा । निरस्तित्व हुआ जा रहा हूँ । मुझे रहने दो, अभय राजा, निरा वीरेन् ही रहने दो ।'
'लेकिन यह महावीर को मंजूर नहीं, कि तुम अब भी अपना असली स्वरूप न पहचानो । तुम हो वीरेन्द्र वासुदेव ! '
'कौन वासुदेव, कैसा वासुदेव ! '
'वासुदेव कृष्ण का तेजांशी पुत्र । महावीर के लीला-नायक वासुदेव कृष्ण का तिर्यगामी वंशधर - वीरेन्द्र । वही मैं और वही तुम भी तो हो !'
और हठात् जैसे एक गहरे धक्के के क्या हूँ, कि अपनी शैया में मैं नहीं लेटा हूँ, अभय जाने कृष्ण वासुदेव लेटा है। और मैं जाने कहाँ से हूँ । कृष्ण-कमल के नील ज्योत्स्नाविल लता - मण्डप में चल रही है एक छायाखेला। कभी मैं अभय हो जाता हूँ, और कभी अभय 'मैं' हो जाता है । और कृष्ण-कमल की नीलाभा में तैर रही है एक वीतराग मुस्कान । अरे, ये तो महावीर के धनुषाकार ओंठ हैं। "" और अचानक फिर एक त्रिभंगी मुद्रा, तिर्यक मुस्कान । नटखट और लीला - चंचल |
साथ पट-परिवर्तन हुआ । देखता राजकुमार लेटा है, कि
यह सब केवल देख रहा
'ठीक ही तो देख रहे हो, वीरेन्द्र वासुदेव ! वीतराग पुरुष महावीर जब जीवन को जीते हैं, तो उस स्वतः स्फुरित परिणमन - लीला का ही नाम हैकृष्ण वासुदेव, अभय वासुदेव, वीरेन्द्र वासुदेव ! '
' कहते क्या हो, अभय दा, अहम् के उस आसमान से तो ख़न्दक में ही गिरूँगा मैं। मुझे अपनी ना कुछ हस्ती में ही रहने दो न । एक निर्बन्धन् अकिंचन्, लोक-निर्वासित कवि ।'
'निर्बंन्धन् अकिंचन्, लोक-निर्वासित कवि ही तो वासुदेव होता है । वह तुम हो जन्मजात, इसी से तो अनुत्तर योगी की रचना कर सके हो !'
'मैं तो सृष्टि और इतिहास में घटित ही न हुआ, अभय दा । मेरा होना या न होना, माने ही क्या रखता है । मुझे यहाँ कौन पहचानता है ?"
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'घटित तुम कहाँ नहीं हो ? और फिर भी अघटित हो, इसी से तो महावीर ने तुम्हें चुना है। कि तुम्हीं उनकी महाभाव लीला का सम्यक् गान
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