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कृष्ण-कमल में बजता जल-तरंग
मेरी छत के ईशान कोण में एक छोटा-सा लता-मण्डप है। उस पर आज कृष्ण-कमल का बड़ा सारा एक फूल खिला है। उसके ठीक ऊपर उग आया है चाँद । कृष्ण-कमल की नीलिमा चांदनी में बेमालूम-सी अपनी आभा छिटका रही है।
"यह कैसा अपलाप घटित हुआ है ! कृष्ण-कमल तो सबेरे खिलता है न । पर यह क्या हुआ, कि आज औचक ही रात में खिल आया है। एक विचित्र अपार्थिवता के बोध से मैं भर आया। शरीर में रोमांच और कम्पन के हिलोरे दौड़ रहे हैं।
''मैं बेबस हो कर बिस्तर पर जा लेटा। लेटते ही मुझे लगा, कि मुझ पर योग-तन्द्रा-सी छाने लगी है। तन-बदन में सहसा ही अकारण सुख ऊर्मिल होता अनुभव हुआ। मन हठात् नीरव, निष्कम्प हो गया। एक गहन शून्य में अपने को विसर्जित होते अनुभव किया। देखते-देखते मैं नहीं रह गया। सब कुछ एकदम निस्तब्ध निःशब्द हो गया। कहीं कोई एक दर्शक मात्र रह गया। और उसके दर्शन में पिछली कई कहानियां जीवन्त हो कर, एक चल-चित्र की तरह खुलती चली गईं। वे ठीक सामने घटित होने लगीं। "और यह क्या है, कि अधिकांश कहानियों के नायक के रूप में अभय राजकुमार ही लीलायमान दिखाई पड़ रहा है। यह महावीर की कथा है, कि अभय राजकुमार की? लेकिन यह भी तो है, कि खेलता है अभयकुमार, और वह सारा खेल मानो महावीर में से आता है, और छोर पर उन्हीं में निर्वापित हो जाता है।
एकाएक कृष्ण-कमल के लता-मण्डप में से सुनाई पड़ा : 'वीरेन्द्र वासुदेव !'
एक अजीब निरतिशय सुख के ज्वार के साथ मैं आपे में आ गया। जैसे किसी अन्तरिक्ष के पलंग पर मैं जागा ।
'मैं मैं मैं वासुदेव कैसा?' 'हाँ, वीरेन्द्र, तुम वही हो, मैं भी वही हूँ!' 'तुम कौन?' 'मैं अभय राजकुमार, तुम्हारी आत्मा का सहचर!'
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