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हठात् प्रद्योतराज को एक तुक्का सूझा : स्वयम् बुद्धिनिधान अभयकुमार से ही क्यों न इस देवी उत्पात का रहस्य पूछा जाये। राजा हँसते-हँसते पिंजड़े के पास गये और सारी घटना अभय राजा को सुना कर जिज्ञासा की :
_ 'अभय राजा, तुम तो हवाओं पर सवारी करते हो। अगम-निगम के भेद जानते हो। ज़रा बताओ तो, हमारे पवनजयी लेखवाहक लोहजंघ के साथ यह कौन प्रेतलीला हो रही है ? उसके बिना तो हमारा तंत्र ही ठप्प हो जाये।'
'जरा वह पाथेय के लड्डुओं की थैली तो मँगवाइये, महाराज !'
तुरंत लोहजंघ ने वह थैली ला कर हाज़िर कर दी। पिंजड़े की शलाखों में से हाथ निकाल, अभय ने उस थैली को संघा। और तत्काल बोल उठा :
'इसमें विशिष्ट प्रकार के द्रव्यों के संयोग से दृष्टिविष सर्प उत्पन्न हो गया है। यदि लोहजंघ ने यह थैली खोली होती, तो वह विष-ज्वाला से दग्ध हो कर वहीं भस्म हो जाता। लोहजंघ शकुन-विद्या का गढ़ ज्ञानी लगता है, इसी से उसकी प्राण-रक्षा हो गयी। भृगुकच्छ में, जान पड़ता है, आपके राज्य का राहु जन्म ले चुका है, महाराज, सावधान ! .. और इस थैली को आप तुरन्त किसी सुदूर निर्जन अरण्य में पराङमुख रह कर छुड़वा दें। वर्ना इसमें से अनेक सर्पजाल फूट कर अपनी फूत्कार-ज्वाला से जाने कितनी बस्तियों को भस्म कर देंगे।'
राजा ने शीघ्र ही वैसी व्यवस्था का आदेश दिया। फिर अवन्तीश्वर ने मानों बड़े प्यार से हँस कर कहा : - 'तुम तो चिन्तामणि पुरुष हो, देवानुप्रिय। तुम्हें नहीं छोड़ना अब तो
और भी अनिवार्य हो गया है। लोहजंघ को बचा कर, तुमने मेरे साम्राज्य को बचा लिया। अपनी मुक्ति के सिवाय और कोई भी वरदान माँग लो, सहर्ष दे दूंगा। तुमसे अधिक कुछ भी महँगा नहीं पड़ेगा मेरे लिये !' ___ 'मुक्ति तो मैं माँग कर लेता नहीं, महाराज। वह सत्ता मैंने आपके हाथ कब सौंपी? लेकिन इस वरदान को मेरी धरोहर रखें अपने पास । समय आने पर ले लूंगा।' ... कह कर अभय राजकुमार जैसे बिजली की फुलझड़ियों की तरह हँस पड़ा। सारे जम्बूद्वीप के राजा जिस चण्डप्रद्योत के आतंक से थर्राते रहते हैं, वही चण्डप्रद्योत अपने बन्दी अभय राजकुमार की इस सहज कौतुकी हँसी से थर्रा उठा। वह इस अजीब आसमानी आदमी को थाहने लगा।"
और उसे लगा, कि उसकी अपनी तहें भेद कर ये कैसे रहस्यों के सफ़ेद भूत एक पर एक उठे आ रहे हैं ! ..
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