SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१८ जो आप बँध आया है, उसे बाँध कर रखने का आपका यह बाल- चापल्य बड़ा मनोरंजक है, उज्जयिनीपति। अपनी मुक्ति और अपनी मर्यादा समुद्र स्वयम् ही हो सकता है । आप अपने पिंजड़े में उसे बन्द रख कर मन बहलाना चाहते हैं, तो उस अनिरुद्ध को क्या आपत्ति हो सकती है ! ' चण्डप्रद्योत को लगा कि पिंजड़े में अभयकुमार नहीं, वह स्वयम् ही बन्दी हो गया है। उसकी शिराएँ तन कर टूटने लगीं। उसके कपाल में रक्त पछाड़ें खाने लगा। उसके शरीर का हाड़-पिंजर जैसे अभी-अभी फट पड़ेगा । चण्डप्रद्योत की साँस घुटने लगी । कैसे इस अनिर्वार का प्रतिकार करे ? इस असम्भव पुरुष के साथ क्या सलूक किया जाये ? क्या इसका कोई निवारण नहीं इस पृथ्वी पर ? चण्डप्रद्योत के राज्य में अग्निभीरु रथ, शिवादेवी रानी, अनलगिरि हाथी और लोहजंघ नामा लेखवाहक ( पत्रवाहक ) दूत - ये चार अप्रतिम रत्न माने जाते थे। राजा बारम्बार लोहजंघ को अनेक राज्यादेशों के लेख ले कर भृगुकच्छ भेजा करता था । उसके निरन्तर आवागमन तथा नित नये शासनादेशों से भृगुकच्छ के लोग बहुत त्रस्त हो गये। हर दिन पच्चीस योजन आता है, और हर बार एक नये हुक्म की तलवार हमारे पर पर टाँग जाता है। लोगों ने मिल कर गुप्त परामर्श किया । क्यों न हम इस लोहजंघ का काम तमाम कर दें, ताकि सदा के लिये इस संकट का ही अन्त हो जाये । उन्होंने एक उपाय-योजना की । लोहजंघ के पाथेय में जो अच्छे लड्डू रखे थे, वे चुरा लिये, और उनके स्थान पर विष मिश्रित लड्डू रख दिये । लोहजंघ अपना कर्त्तव्य कर, सहज भाव से अवन्ती की ओर चल पड़ा । अवन्ती की सीमा में प्रवेश कर वह एक नदी के तट पर, अपने पाथेय के लड्डू निकाल कर कलेवा करने बैठा । हठात् कुछ अपशकुन हुए। वह तुरन्त वहाँ से आगे बढ़ गया । और एक सरसी तट के कदली कुंज में पाथेय खाने बैठा । वहाँ भी एक के बाद एक कई अपशकुनों ने उसे चौंका दिया । किसी भयानक अदृष्ट की आशंका से वह काँप उठा । भूखा-प्यासा ही वह भागता हुआ उज्जयिनी आ पहुँचा । आ कर उसने महाराज से सारा वृत्तान्त कहा । राजा को जैसे किसी अपार्थिव उत्पात की आशंका हुई । एक अवार्य भय से वह लोमहर्षित हो उठा । अभय राजकुमार का फौलादी सुवर्ण पिंजड़ा उसके कपाल से टकराने लगा । मेरी सत्ता का वज्र क्या लौट कर मुझी पर टूट रहा है ? अभय कुमार की अकल्प्य पराक्रम - कथाएँ, उसके मस्तिष्क में जैसे मारण मंत्र की तरह भन्नाने लगीं। भी तो असम्भव नहीं, इस आसमानी आदमी के लिये ! इस संकट की घड़ी में इसे बन्दी रखना ख़तरनाक है, तो मुक्त करना और भी ख़तरनाक़ ! गयी। मंत्रियों की अक्ल को पसीना आ गया । कुछ राजा की बुद्धि जवाब दे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy