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________________ ३१७ महाकालेश्वर की देवदासी भुवनेश्वरी ने बताया, कि किस प्रकार धर्मछल कर के वह दुर्दान्त अभयकुमार को बाँध लायी है । क्षात्र मर्यादा के पालक नीतिमान अवन्तिनाथ को यह बहुत अरुचिकर लगा, कि धर्म के विश्वासी साधुमना अभयकुमार को यों धर्म-छल करके वह बाँध लायी है । तुरन्त आदेश दिया, कि अभय को पाश - मुक्त करके, उनके योग्य उच्चासन पर महाराज की दायीं ओर आसीन किया जाये । तत्काल यथावत् आज्ञा का पालन किया गया । .... मानो कि दीर्घ निद्रा से जाग कर अँगड़ाई लेते हुए, अभय ने स्थिति को पहचाना। बड़ी मीठी और शरारती मुस्कान के साथ उन्होंने प्रद्योतराज की ओर निहारा । विनयपूर्वक उनका अभिवादन किया । तब प्रद्योत ने बात को विनोद में उड़ा देने के ख्याल से, हँसते हुए अभय से कहा : 'निःशस्त्र विजेता चतुर-चूड़ामणि अभयकुमार को, उज्जयिनी की एक वारांगना यों बाँध लायी, जैसे कोई मार्जारी शुक-पक्षी को पकड़ लायी हो ! भला यह असम्भव कैसे सम्भव हो सका, अभय राजकुमार ?' 'धन्य है अवन्तीनाथ की बुद्धिमत्ता और नीतिमत्ता ! आपके इस पराक्रम से पृथ्वी पर क्षात्र धर्म की नयी मर्यादा स्थापित हो गयी ! ' कह कर, अभय राजकुमार ठहाका मार कर हँस पड़ा। सुन कर प्रद्योत लज्जित भी हुआ, और कोपायमान भी । फिर सत्तामद से इठलाते हुए व्यंग की हँसी हँस कर कहा : 'चाहो तो तुम्हें मुक्त कर दूं, अभय राजा ! ' 'अपने बन्धन और मुक्ति दोनों का स्वामी मैं स्वयम् हूँ, महाराज ! वह सत्ता मैंने आपके हाथ नहीं रक्खी। मैं अपने ही उपादान से यहाँ बन्दी हूँ, राजन् । आपके या आपकी वेश्या के छल-बल से नहीं । अब तक आपने मुक्त अभय के खेल देखे, अब ज़रा बन्दी अभय कुमार की लीला भी देखें । कुछ आपका मनोरंजन हो जायेगा । आपके चण्ड प्रताप का नशा जरा हलका हो जायेगा। आपकी क्रोधाग्नि को मेरे चन्दन - जल की वर्षा की जरूरत है । नहीं तो आपका नाड़ी-चक्र छिन्न-भिन्न हो जायेगा ! ' चण्डप्रद्योत इस अपमान से आग-बबूला हो गया । भीषण क्रोध से अट्टहास कर बोला : 'अच्छा तो देखता हूँ, कैसे तुम अपने बन्धन और मुक्ति के स्वामी हो !" कह कर उज्जयिनी पति ने एक सुवर्ण से मढ़े फौलाद के पिंजड़े-नुमा कक्ष में, अभय को राजहंस की तरह क़ैद करवा दिया। अभय ने हँस कर कहा : 'यह पिंजड़ा तो मैं चुटकी बजाते में तोड़ कर भाग सकता हूँ, महाराज । मेरा स्वायत्त कारागार ही मुझे बाँधे रखने को पर्याप्त है । अपनी खुशी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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