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क्यों? औरों को लेकर इतना आरत क्यों? वह हर व्यक्ति और वस्तु पर अपने आधिपत्य की छाप क्यों लगाना चाहता है ? अपने-पराये का हिसाबकिताब क्यों करता है ? व्रत अपने से अन्य तमाम जीवों को ले कर है। इसी से अन्य के साथ के अपने सम्बन्धों में वह आचरित न हो, तो वह आत्मिक मुक्ति के नाम पर अन्यों को, और सब से अधिक अपने को, धोखा देना है। वह आत्म-साधना की आड़ में निरी आत्म-छलना है।''
'पूछता हूँ देवानुप्रिय, क्या आपने कभी गण की चाह को जाना है, उसकी पीड़ा को पहचाना है ? उसकी पुकार को सुना है ? क्या वैशाली का जनगण यह वर्षों व्यापी युद्ध मगध के साथ चलाना चाहता है, जिसे वैशाली के शासक चला रहे हैं ? मैं फिर पूछता हूँ, वैशाली के यहाँ उपस्थित जनगण से- क्या वह युद्ध चाहता है ? ...'
लाखों कण्ठों ने प्रतिसाद किया :
'नहीं, नहीं, नहीं! हम युद्ध नहीं चाहते। यह युद्ध राजाओं का है, प्रभुवर्गों का है, प्रजाओं का नहीं। प्रजाएँ कभी युद्ध नहीं चाह सकतीं। .. यह युद्ध बन्द हो, बन्द हो, तत्काल बन्द हो !'
श्री भगवान् ऊर्जस्वल हो आये :
'जनगण के प्रचण्ड प्रतिवाद को सुना आपने, महाराज? जिसमें प्रजा की इच्छा सर्वोपरि न हो, वह गणतंत्र कैसा ? वह तो अधिनायकतंत्र है। इसमें और अन्य साम्राजी तंत्रों में क्या अन्तर है ? यह गणतंत्र नहीं, निपट नग्न राजतंत्र है। इसे साक्षात् करें, राजन्, इससे पलायन न करें। प्रत्यक्ष देखें, गणेश्वर , कि यहाँ शासक और शासित के बीच परस्पर उत्तरदायित्व नहीं है । जो राज, समाज और व्यवस्था जन-जन के प्रति उत्तरदायी नहीं, वह व्यवस्था प्रजातांत्रिक नहीं, राज्यतांत्रिक है। वैशालीनाथ चेटक देखें, उनकी वैशाली कहाँ है ? कहाँ है उसका अस्तित्व ? यदि जनगण वैशाली नहीं, तो जिसे आप और आपके सामन्त राजवी हमारी वैशाली कहते हैं, वह निरी मरीचिका है। वह प्रजातंत्र नहीं, प्रजा का निपट प्रेत है। इस प्रेत-राज्य की रक्षा आप कब तक कर सकेंगे, महाराज ? धोखे के पुतले को कब तक खड़ा रक्खेंगे ?' ___ श्री भगवान् चुप हो गये। कुछ देर गहन चुप्पी व्याप रही। उस अथाह मौन को भंग करते हुए, चेटकराज जाने किस असम्प्रज्ञात समाधि में से बोले :
'मैं निर्गत हुआ, मैं उद्गत हुआ, भगवन् । मैं सत्य को सम्यक् देख रहा हूँ, सम्यक जान रहा हूँ, सो सम्यक् हो रहा हूँ। देख रहा हूँ प्रत्यक्ष, महावीर
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