SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ 'वे, जो सत्ता की मूर्धा पर बैठे हैं। वे ही यदि स्वच्छ न हों, तो शासन कैसे स्वच्छ रह सकता है, महाराज। और शासन स्वच्छ न हो, तो प्रजा कैसे स्वच्छ रह सकती है। पहले शासक भ्रष्ट होता है, तब प्रजा भ्रष्ट होती है। भ्रष्टाचार का मूल मूर्धन्य सत्ताधीश में होता है। वह मूलतः शासन में नहीं, शासित में नहीं, सत्ताधारी में होता है। पहले वह अपना निरीक्षण करे, तो पायेगा कि उसके भीतर न्यस्त स्वार्थ के कैसे-कैसे गुप्त और सूक्ष्म अँधेरे सक्रिय हैं। वही पाप के विषम अँधेरे सारे राष्ट्र की नसों में व्याप्त हो कर, उसे घुन की तरह खा जाते हैं। इस भ्रष्टाचार के मूलोच्छेद की पहल कौन करे, देवानुप्रिय चेटकराज ?' 'आजीवन जिनेश्वरों का व्रती श्रावक चेटक, वीतराग केवली महावीर की दृष्टि में भ्रष्टाचारी है ? तो बात समाप्त हो गयी, भगवन् !' वृद्ध गणपति का गला भर आया। श्रीभगवान् अनुकम्पित हो आये : 'भ्रष्टाचारी आप स्वयम् नहीं, गणनाथ। आप स्वयम् तो स्फटिक की तरह निर्मल हैं, महाराज। लेकिन अष्टकूलक राजन्यों ने आपके सरलपन का लाभ उठा कर, आपको अपने हाथों का हथियार बना रक्खा है। आपकी स्थिति धर्मराज युधिष्ठिर जैसी है। जो स्वयम् धर्म का अवतार होकर भी, स्व-कर्त्तव्य से पराङ मुख होता गया। आप उस मूर्छा से जागें, और पहल कर के इस कूट चक्र को तोड़ दें, तो वैशाली में क्रान्ति आपोआप हो जायेगी।' 'क्या मेरा व्रती जीवन ही अपने आप में एक पहल नहीं?' 'क्षमा करें गणेश्वर चेटकराज! आपका व्रत तो कहीं वैशाली में फलीभूत न दीखा। व्रत अन्यों को ले कर है, पर सापेक्ष है। अन्यों के साथ सम्बन्ध-व्यवहार में वह प्रकट न हो, तो व्रत कैसा? अपने से इतर के साथ हमारा सम्यक् सम्बन्ध और आचार क्या हो? उसी का निर्णायक तो व्रत है। सम्यक् निश्चय ही सम्यक् व्यवहार का निर्णायक है। असम्यक् निश्चय में से, सम्यक् व्यवहार कैसे प्रकट हो सकता है। .... श्रीभगवान् का स्वर गंभीर होता आया : 'व्रती वह, जो विरत हो। व्रत की आड़ में विरति यदि कुछ विशिष्ट प्रतिज्ञाओं में बँध कर जड़ हो जाये, तो समूचे जीवन-व्यवहार में वह जीवन्त और प्रतिफलित कैसे हो? जो विरति, जो व्रत व्यक्ति में ही बन्द रह कर अलग पड़ जाये, तो वह विरति नहीं आत्म-रति है। लोक से विच्छिन्न हो कर, वह लोक में प्रकाशित कैसे हो सकती है ? और यदि व्रत केवल अपने ही वैयक्तिक आत्मिक मोक्ष के लिये हो, तो फिर व्रती जीवन में इतना रत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy