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प्रव्रज्या ग्रहण करें, और फिर अपने ही भगवान् आत्मा की भाव-पूजा में परायण हो जायें। इसी कारण अभी हम चैत्य-वन्दना हेतु तीर्थ यात्रा पर निकली हैं।' ___ अभयकुमार सुन कर करुणा और वात्सल्य से भर आये। सौन्दर्य और संयम की यह मधुर कारुणिक मुद्रा, कहीं गहरे में उनके हृदय को विदग्ध कर गयी। वे आत्मीय हो आये और विनीत स्वर में बोले :
'आपका दर्शन कर मन पावन हो गया, देवियो! सौन्दर्य, संगीत और संयम की यह संयुति देख प्रणत हो गया हूँ। आज आप मेरा आतिथ्य ग्रहण करें। सहधर्मी का आतिथ्य तीर्थ से भी अधिक पवित्र होता है।'
प्रमुखा कपट-श्राविका ने मुग्ध कटाक्षपात करते हए, लज्जा से आँखें झुका, मुस्करा कर कहा :
'आप के उदात्त भाव की आभारी हूँ, अपरिचित बन्धु ! आज तो हमारा तीर्थोपवास है, सो क्षमा चाहती हूँ।'
'तो फिर कल प्रातःकाल आप हमारा घर पावन करें !' 'अब तक आपका परिचय पाने का सौभाग्य न हो सका, महाभाग बन्धु ?'
'मगध के आवारा पन्थचारी अभय राजकुमार का नाम आपने नहीं सुना? आर्यावर्त में उसकी उद्दण्डता अनजानी तो नहीं । अरे, आप मुझ से डर गयीं क्या ?'
कपट-श्राविकाएँ ख़ब ज़ोर से हँस पड़ीं : 'मगध के सर्वमोहन युवराज अभय कुमार की पराक्रम-गाथा तो सारे जम्बू द्वीप की रमणियाँ गाती हैं। लोकगीतों के उस महानायक को प्रणाम करती हूँ।'
'प्रणाम करके बाद को पछताना न पड़े, यही देख लें, देवी ! हाँ, तो कल प्रातःकाल हमारा राजद्वार आपकी पग-धूलि की प्रतीक्षा करेगा !'
प्रवीणा भुवनेश्वरी ने ठीक सुयोग पा कर, बात में जैसे संगीत की मुरकी लगायी :
'अगला ही क्षण अनिश्चित है, युवराज, तो कल प्रातःकाल का निर्णय करने वाली मैं कौन होती हूँ?'
__'आप के इस सम्यक् ज्ञान और अवधान से मैं आप्यायित हुआ, देवी। तो कल सवेरे फिर यहीं मैं आप को आमंत्रित करने आऊँगा। देखें, उपादान के गर्भ में क्या है !' ___कह कर अभय कुमार उनसे बिदा ले, चैत्य-वन्दना के लिए देवालय में प्रवेश कर गये।
अगले दिन का सूर्योदय जाने कितनी होनी-अनहोनी कथाओं का कमल-कोश खिलाता आया।
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