SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१४ उनकी साधना-आराधना से प्रसन्न महाश्रमणी ने उन्हें सहर्ष अनुमति दे दी । ''और वे चुपचाप अपने रथ पर आरूढ़ हो, राजगृही की ओर प्रस्थान कर गयीं । तीन जगत् को छलने में समर्थ माया की तीन मूर्तियों जैसी वे तीनों, श्रेणिक के नगर-प्रान्तर में आ पहुँचीं । उन वारांगनाओं ने नगर बाहर के एक उद्यान में आवास ग्रहण किया । फिर वे चैत्यों के दर्शन की इच्छा से राजगृही नगरी में आयीं । मगधेश्वर के 'सहस्रकूट चैत्यालय' में जा कर उन्होंने अतिशय विभूति के साथ नैषेधिकी आदि क्रियाएँ कर के, जिनेन्द्र देव की विधिवत् पूजा-आराधना की । फिर मालकोश इत्यादि अनेक राग-रागिनियों के साथ प्रभु का स्तुतिगान आरम्भ किया । ठीक उसी बेला अभय राजकुमार देव - वन्दना के लिये चैत्यालय में आये । उज्ज्वल वेशी, मुक्तकेशी, तीन अनजान सुन्दरियों के उस दिव्य संगीतमय स्तवन- गान को सुन कर अभयकुमार भक्ति भाव से विभोर और स्तब्ध हो रहे । दूर ही खड़े हो कर वे तन्मय भाव से सुनते रहे, ताकि उनकी उपासना में बाधा न पहुँचे । इसी कारण उन्होंने रंग- मण्डप में भी प्रवेश नहीं किया । स्तवन पूरा होने पर उन उपासिकाओं ने, मुक्ता- शुक्ति मुद्रा द्वारा प्रणिधान पूर्वक प्रार्थना की । अशीर्ष प्राणिपात किया, और उठ कर चलने को उद्यत हुईं । तभी अभय राजकुमार देव-मण्डप में प्रवेश करते दिखायी पड़े । सहज स्मित के साथ उन्हों अतिथि उपासिकाओं की अभ्यर्थना की। उनके सुन्दर सात्विक वेश और उपशम भाव से प्रसन्न गद्गद् हो कर, अभय देव ने उनकी प्रमुखा से निवेदन किया : 'मेरा अहोभाग्य है, कल्याणियो, कि आप जैसी साधर्मी साधिकाओं का समागम हुआ। सहधर्मी जैसा बान्धव तो जगत् में कोई नहीं होता । मेरी प्रगल्भता को क्षमा करें, देवियो । क्या आपका परिचय पाने का सौभाग्य मेरा हो सकता है ? यहाँ कैसे आना हुआ ? कहाँ आवास ग्रहण किया है ? और ये दोनों आपकी संगिनियाँ कौन हैं, कि जिनके संग स्वाति और अनुराधा नक्षत्रों के बीच आप चन्द्रलेखा की तरह शोभित हैं ? ' प्रमुखा कपट-श्राविका बहुत ही मृदु मधुर कोयल स्वर में बोली : 'मैं उज्जयिनी नगरी के एक धनाढ्य व्यापारी की विधवा स्त्री हूँ । ये दोनों मेरी पुत्र- वधुएँ हैं । ये भी काल-धर्म से मेरी ही तरह वृक्ष - विच्छिन्न लताओं के समान विधवा हो गयी हैं । सो भर यौवन में ही प्रभात के तारों की तरह कुम्हला गयी हैं । विधवा होते ही इन्होंने मुझ से व्रत- ग्रहण के लिये अनुमति चाही थी । पतिहीना विधवा त्रिलोकपति प्रभु की सती ही तो हो सकती है । मैंने इन से कहा कि- मैं भी अपना यह उत्तर यौवन अर्हन्त को ही नैवेद्य करूँगी । तत्काल तो हम कुछ काल गार्हस्थ्य में ही रह कर उत्तम श्राविका व्रतों का पालन करें, शास्त्राध्ययन और तीर्थयात्रा द्वारा साधना-उपासना करें । इस द्रव्य - पूजा द्वारा चित्त का निर्मलीकरण कर के ही हम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy