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अजीब आसमानी आदमी
एकदा उज्जयिनी-पति चण्डप्रद्योत ने क्रोध से इंकार कर अपनी भरी राजसभा के बीच चुनौती फेंकी :
'है कोई ऐसा विचक्षण शूमा मेरे राज्य में, जो उल्कापाती अभय राजकुमार को बाँध लाये, और मेरे सिपुर्द कर दे ? मैं उसे निहाल कर दूंगा।'
कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। कि हठात् एक गणिका महाराज के सम्मुख आयी। नतमाथ अभिवादन कर के बोली :
'महाराज यदि आज्ञा दें, तो मैं यह करतब कर दिखाऊँ !'
'ओ,"तुम भुवनेश्वरी ? भगवान् महाकालेश्वर की देवदासी। निश्चय ही उस कूटचक्री को तुम्हारा कुटिल कटाक्ष ही वशीभूत कर सकता है। जय महाकाल, जय महाकाल !'
'भूतभावन भोलानाथ की दासी सेवा में प्रस्तुत है, महाराज । मेरे साथ दो और भी सुन्दरियाँ जायेंगी। प्रभु आदेश करें।'
'कांचन-कामिनी की हमारे यहाँ क्या कमी है, सुन्दरी ! मंत्रीश्वर आदित्य प्रताप, भुवनेश्वरी जो सरंजाम चाहे, उसे दो, और शीघ्र एक उत्तम अश्वों का रथ जुड़वा कर उसे तत्काल राजगृही रवाना कर दो।'
एक चित्रित यवनिकाओं से बन्द रहस्यमय रथ राजगृही के मार्ग पर तड़ित्-वेग से पलायमान है। भीतर चुप बैठी भुवनेश्वरी को सूझा : धर्मात्मा है अभय राजकुमार, उसे धर्म-छल से ही तो वश किया जा सकता है। सो उसने और उसकी संगिनी सुन्दरियों ने केश खोल कर उज्ज्वल श्वेत वस्त्र धारण कर लिये । मार्ग में दिखायी पड़ा एक साध्वी-मठ। भुवनेश्वरी ने रथ रुकवा दिया, रथिक को आज्ञा दी कि पास की पान्थशाला के रथागार में रथ खोल कर, वहीं आवास ग्रहण करे। साध्वी-मठ की अधिष्ठात्री महाश्रमणी, इन ज्ञानपिपासु सुन्दरियों को पा कर प्रसन्न हुई। उन्हें अपनी शिष्या के रूप में अंगीकार कर लिया। वे तीनों ही गणिकाएं व्युत्पन्न मति और चतुरा थीं। कुछ ही दिनों में उन्होंने जिनेश्वरी उपासना के सारे ही अंगों का भली-भाँति अभ्यास कर लिया। वे सर्व विधियों में बहुश्रुत और प्रवीण हो गईं। एक दिन उन्होंने अपनी गुरुआइन से 'सम्मेत शिखर' की तीर्थयात्रा और वन्दना के लिये जाने की आज्ञा चाही।
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