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________________ ३१२ 'सीधी तो बात है, बापू ! यदि एक कुट से हजारों-हजारों गर्दनें कटने से बच गईं, तो उसे क्या आप झूठ कहेंगे? सत्य सपाट नहीं होता, बापू, वह एक सर्वतोमुखी प्रकाश होता है । लाखों निर्दोष मानवों का रक्तपात जिसने बचा दिया, लाखों माँगों का सिंदूर जिसने ज्वलन्त रखा, लाखों बच्चों को अनाथ होने से जिसने उबार लिया, वही क्या परम सत्य नहीं है ? ' _ 'अर्हन्त महावीर से पूछ कर ही बता सकंगा, कि क्या कभी सत्य भी झूठ हो सकता है, और क्या झूठ भी सत्य हो सकता है ?' 'अनेकान्त-चक्रवर्ती महावीर का उत्तर, अभी और यहाँ सुन रहा हूँ, देव ?' 'ज़रा सुनूं तो भला, क्या है वह उत्तर?' . 'धर्मचक्र से बड़ा कोई कूटचक्र नहीं, क्यों कि वह जब प्रवर्तन करता है, तो उसके तेजो-प्रवाह में जगत् के सारे कुटचक्र ध्वस्त हो कर बह जाते हैं !' 'इन विरोधाभासों को समझना, मेरे वश का नहीं, अभय !' 'विरोधों की नोक पर ही सत्य का सूर्य फूटता है, बापू । उसे समझा नहीं जा सकता, सिर्फ जिया जा सकता है । महावीर अविरल क्रियाशक्ति का प्रवाह है। दर्शन, ज्ञान और क्रिया उस में हर पल एकाकार है !' ___'अपनी चेतना में उन प्रभु को अनुपल प्रवाहित अनुभव करता हूँ। लेकिन वह अनुभव प्रमाणित कैसे हो? वह प्रत्यक्ष जीवन-यथार्थ कैसे हो ?' 'इतिहास की धमनियों में एक दिन वह स्पन्दित होगा। पृथ्वी की माटी में एक दिन वह मूर्त होगा । जीवन का यथार्थ होगा एक दिन वह अनेकान्त का सूर्य !' महाराज अभय राजकुमार की वह तेजोदीप्त मुख-मुद्रा अवाक् देखते रह गये ।"अभय के मुँह से बरबस ही हँसी फूट पड़ी। 'अरे बापू, आप तो बहुत गम्भीर हो गये ? यह सब एक अनिर्वार परिणमन । एक अविराम लीला । एक अन्तहीन खेल । खेलते जाइये, और पार होते जाइये। रुके कि राग हुआ, कि मारे गये। आप गम्भीर हो कर सोचते हैं, बापू ! सोच निरर्थक है। सिर्फ स्वयम् आप होते जाना है, रहते जाना है। निर्विचार । महाजीवन की तरंगों में लीला भाव से रमते जाना है !' 'लेकिन महावीर तो वीतराग है ? उसके यहाँ लीला कैसी ?' 'जो वीतराग है, वही तो सहज लीला भाव से जी सकता है, देव । निश्चल महावीर त्रिलोक और त्रिकाल में पल-पल लीलायमान है। आपने यह देखा नहीं क्या, महाराज ?' ____ 'अभय राजकुमार के लीला-खेल जो देख रहा हूँ ! अब देखने को क्या बाक़ी रह गया है ?' ___ अभय के मुक्त अट्टहास से, राजगृही के क्रीड़ा-कुंजों में विजयोत्सव की धूम मच गयी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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