________________
राजाओं के आवास-शिविरों की भूमि खुदवायी गयी। ढेर-ढेर सुवर्ण-मुद्राएँ निकल आयीं!
प्रद्योत को लगा, कि उसके अजेय पौरुष और वीरत्व में इस क्षण बट्टा लग जायेगा। एक शब्द भी वह नहीं बोला। तत्काल अपने तुरंग पर चढ़ कर, वह उज्जयिनी की ओर भाग निकला। उसको यों भागते देख कर, उसकी सेनाएँ भी सब कुछ वहीं छोड़ कर, उसके पीछे ही पलायन कर गयीं । इस अबूझ भगदड़ से आतंकित हो कर साथ के मुकुटबद्ध चौदह नरेन्द्र भी चीलकौवों की तरह, जिस हाल में बैठे थे, उसी हाल में भाग निकले । उनकी सेनाएँ भी तितर-बितर हो कर, राह के जंगलों में प्राण बचाने को घुस पड़ी। तभी अभयकुमार के संकेत पर, मगध की सेनाएँ पलायित शत्रु के परित्यक्त शिविर-क्षेत्र पर टूट पड़ीं। शत्रुदल के पीछे छूटे तमाम रथों, अश्वों, हाथियों, शस्त्रायुधों, द्रव्य-मंजूषाओं और खाद्यान्न के भण्डारों पर अधिकार कर, वे उन्हें राजगृही में ले आये। ___उधर प्राण नासिका में चढ़ा कर भागे चण्डप्रद्योत ने, उज्जयिनी के महालय में पहुँच कर ही दम लिया। उसके पीछे ही भागे आये, उसके सारे माण्डलिक राजा और महारथी भी । उन्हें केश बाँधने का भी अवकाश न मिला। तो घोड़ों की ज़ीन कौन कसे ? रथ जोतने की किसे पड़ी थी ? सो खुले केश, मुकुट-छत्रहीन, जाने कितने दिन-रात यात्रा करते, असज्ज घोड़ों की नंगी पीठ पर सवार, वे भी एक दिन उज्जयिनी में प्रवेश करते दीखे ।
प्रद्योतराज के साथ वे सब मन्त्रणा-गृह में बन्द हो गये। उन्होंने सौगन्ध उठा कर अपने मण्डलेश्वर उज्जयिनी-पति को विश्वास दिला दिया, कि वे सब निर्दोष हैं। यह सब विश्व-विश्रुत उत्पाती अभय राजकुमार की औत्पातकी विद्या का षड्यन्त्र है। चण्डप्रद्योत ओंठ काट कर अपने क्रोध को घुटने लगा। उसने अपने बत्तीसों दाँत भींच कर, विक्रान्त पदाघात से धरती को दहलाते हुए प्रतिज्ञा की : 'अभयकुमार, तुम्हें अपनी इस कूट-बुद्धि का मूल्य चुकाना पड़ेगा ! ...
उधर हर्षातिरेक में श्रेणिकराज बोले :
'आयुष्यमान् अभय राजा, यह तुम्हारा कूटचक्र है कि महावीर का धर्मचक्र ?'
'कूट हो कि धर्म हो, महाराज, दोनों ही की गति सपाट नहीं, वह चक्राकार ही तो हो सकती है । कूटचक्र कब धर्मचक्र हो जाता है, और धर्मचक्र कब कूटचक्र हो जाता है, यह सर्वज्ञ महावीर के सिवाय और कौन जान सकता है, बापू ?'
'तुमने तो बिना तलवार ही समर जीत लिया, बेटे। सब कुछ समझ से बाहर होता जा रहा है !'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org