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________________ ३०८ 'लेकिन हम तो अपने सारे सैन्य-शस्त्र अर्हन्त महावीर को अर्पित कर चुके ! सैन्य बिना समर का सामना कैसे करोगे?' 'मगधेश्वर के नहीं, महावीर के सैन्य सग्राम लड़ेंगे, महाराज ! महावीर का धर्मचक्र आततायी को पल मात्र में पदानत कर देगा!' 'महावीर के सैन्य संगर खेलेंगे ? महावीर का धर्मचक्र शत्रु का शिरच्छेद करेगा? महावीर युद्ध लड़ेंगे? कैसी विपरीत बात कर रहे हो, अभय ?' 'जानते तो हैं, बापू, महावीर से बड़ा योद्धा तो इस समय त्रिलोकी में कोई नहीं। वे अविरुद्ध प्रभु, बलात्कारी के विरुद्ध सतत् युद्ध-परायण हैं !' 'निश्चल निग्रंथ सर्वजयी महावीर और युद्ध-परायण हैं ? यह क्या अपलाप सुन रहा हूँ, अभय राजा! और धर्मचक्र तो मारक नहीं, तारक होता है।' ___'लोक का परित्राता तीर्थंकर, हर पल योगी और योद्धा एक साथ होता है, बापू। उसका धर्मचक्र पाप का संहारक, और पापी का तारक एक साथ होता है। जिस महावीर ने कर्मों के जन्मान्तर-व्यापी अभेद्य जंगलों को भेद कर भस्म कर दिया, उसके आगे चण्डप्रद्योत का चण्डत्व क्या टिक सकेगा?' 'यह सब मेरी समझ के बाहर है, अभय राजा। मैं अब शस्त्र नहीं उठाऊंगा। वह मैं कब का त्याग चुका।' 'आप नहीं उठायेंगे, तो महावीर शस्त्र उठायेगा, महाराज ! अनिर्वार है उस परम प्रजापति की तलवार। उसके धर्मचक्र पर अवन्तीनाथ का वीर्य परखा जायेगा!' 'तो फिर रण का डंका बजवा दो, आयुष्यमान् । आक्रमणकारी प्रद्योत तुम्हारे युद्ध का अतिथि हो। और उसके बाद जामाता प्रद्योत का मेरे भोजन की चौकी पर स्वागत है !' अभयकुमार ठहाका मार कर हँस पड़ा : 'खूब कहा आपने, बापू, फ़ैसला हो गया। रणांगण में उन्हें निपटा कर, फिर आपके भोजनागार में लिवा लाऊँगा!' ____ 'तो मगध के समुद्र-कम्पी शंखनाद से दिशाओं को थर्रा दो, अभय । रण का मारू बाजा बजवाओ। प्रजाओं को सावधान कर दो। सीमान्त को हमारे कोटि-भट योद्धाओं से सज्ज कर दो। तुम्हारी जय हो, मगध की जय हो , महावीर की जय हो!" 'यह सब अनावश्यक है, बापू । मैं अकेला ही काफ़ी हूँ, चण्डप्रद्योत के लिये। प्रजाओं की शान्ति भंग नहीं करनी होगी। चर्मचक्र भूतल पर नहीं, भूगर्भ में संचार और संहार करता है। आप निश्चिन्त हो जायें, महाराज। और मंत्रियो, सामन्तो, सेनापतियो, सावधान ! यह संवाद राज-सभा से बाहर, हवा भी न सुन पाये।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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