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________________ 'तो मुझे तार दें, हे मेरे तारनहार। मुझे भी अपने ही जैसा बना लें !' 'तारक यहाँ कोई किसी का नहीं । तुझे स्वयम् ही अपने संवेद और संवेग से तर जाना होगा। तुझे स्वयम् ही आप हो जाना पड़ेगा। वही महावीर ने किया, वही तुझे भी करना होगा।' 'लेकिन आपने मुझे तारा है, भगवन्, यह तो प्रमाणित है। मेरे दृष्ट बुद्धि पिता ने आपका वचन सुनने की मुझे सख्त मनाई कर दी थी। लेकिन पैर में शूल गड़ गया, तो लाचारी में अनजाने ही आपके वचन सुन लिये। उससे जो ज्ञान मिला, जो पहचान मिली, उसी के बल तो मैंने सम्राट और मंत्री का चक्रव्यूह भी तोड़ दिया। वे मुझे पकड़ न सके, उनकी शक्ति मझे अपराधी सिद्ध न कर सकी। जिन प्रभु के कुछ शब्दों ने ही मुझे इतनी बड़ी सत्ता दे दी, वे ही तो मुझे भव-सागर से भी तार सकते हैं।' 'तू उनके स्वार्थी न्याय-विधान से परे चला गया। अब तू अपना न्यायपति स्वयम् हो जा रे, अपना सत्य और न्याय तू स्वयम् हो जा रे, अपना आईन-क़ानून तू स्वयम् हो जा रे, अपना स्वामी तू स्वयम् हो जा रे ! तो कोई सम्राट, कोई साहुकार, कोई सत्ता तुझे पकड़ न सकेगी। उनकी सत्ता-सम्पदा तेरे चरणों में आ पड़ेगी !' 'मैं अपनी उस महासत्ता में उठ रहा हूँ, भगवन् ! यह कैसा चमत्कार है ?' 'तथास्तु । चोर हो तो ऐसा हो, जिसने समस्त लोक सम्पदा के भद्रवेशी चोरों के तख्ते तोड़ दिये। तहख़ाने उलट दिये। उनके चोरी के धन को अन्तिम रूप से चुरा लिया !' __ 'अब मेरे लिये क्या आदेश है, भगवन् ? मैं प्रभु का क्या प्रिय करूं? जिनका धन मैंने चुराया है, वह उन्हें ही लौटा दूं ?' "जिनका वह धन है ही नहीं, उन्हें क्यों लौटायेगा ? चोरी का धन चोरों को ही वापस लौटायेगा रे ?' 'तो उसका मैं क्या करूँ, भगवन् ?' 'धन-सत्ता के स्वामियों ने जिन्हें वंचित कर, लोक का सारा धन अपने लिये बटोर लिया है, उन दीन-दरिद्रों, अभाव-पीड़ितों को बाँट दे वह सम्पदा । वह सर्व की है, सो सर्व को ही दे दे।' 'उसके उपरान्त क्या करूँ, भगवन् ?' 'हो सके तो लोक-लक्ष्मी के अपहर्ता और बलात्कारी शोषक और शासक का, तु इस पृथ्वी और इतिहास में से मूलोच्छेद कर दे। जन्मान्तरों में यही पराक्रम अटूट करता चला जा। जब तक यह न कर दे, विराम नहीं। जिस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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