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दण्डनायक निरुत्तर हो गया। षड्यंत्र विफल हो गया। प्रतिहार ने जाकर सारी घटना अभयकुमार से कही। अभयकुमार ने महाराज-पिता को सारी स्थिति की जानकारी दे दी। फिर चोर को सामने प्रस्तुत कर दिया। और चुप खड़े रह गये। श्रेणिक बोले : ___ 'तो मानव मन का मन्मथ अभयकुमार भी रोहिणेय चोर को न पकड़ पाया? उसका अपराध प्रमाणित न हो सका। मृत्युदण्ड का भय भी उससे अपराध स्वीकार न करा सका !'
'लक्ष्य करें बापू, आपने ही अपने मुख से अभी स्वीकारा, कि यह चोर मृत्यु-भय को लाँघ गया है। इसी से तो मृत्यु दण्ड का भय भी उससे अपराध स्वीकार न करा सका?'
'तो ऐसे विचित्र चोर के साथ क्या बर्ताव किया जाये, अभय राजा?' 'उसे छोड़ दें महाराज, उसे मुक्त कर दें, देव !'
'प्रजापति होकर प्रजा के पीड़क को मुक्त कर दूं? पकड़ कर भी उसका प्रतिकार न कर सकूँ? तो मेरा क्षात्र धर्म पृथ्वी पर चिरकाल के लिये कलंकित हो जायेगा! यह तुम क्या कह रहे हो, अभय ?'
'ठीक ही तो कह रहा हूँ, बापू ! रोहिणेय का परित्राण भी तो आपके क्षात्र धर्म को ललकार रहा है, महाराज !'
'लेकिन वह हो कैसे?'
'उसे अपने स्वभाव में विचरने को मुक्त कर दीजिये। पकड़ में आये चोर को आप छोड़ देंगे, तो वह छूटकर क्या चोर रह सकेगा?'
श्रेणिक अवाक् । राज-परिषद् स्तम्भित । महाराज का गंभीर स्वर सुनाई पड़ा :
'अपनी राह पर अभय विचरो, रोहिणेय। हम तुम्हें मुक्त करते हैं !'
निमिष मात्र में, रोहिणेय के तलातल उलट-पलट कर स्तब्ध हो गये। उसके सारे पाप-अपराध उसकी आँखों से जलधारा बनकर बहते आये। उसने महाराज और अभय राजा को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया। और चुपचाप वहाँ से धीरे-धीरे जाता दिखायी पड़ा।
श्रीमण्डप में निस्तब्धता छायी है। निस्पन्द प्रभु का मौन तमाम चराचर में गहराता जा रहा है। ओंकार ध्वनि भी स्तम्भित है। ___'मैं रोहिणेय चोर, श्रीचरणों में शरणागत हूँ, देवार्य ! मैं अपने सारे पापों और अनाचारों को प्रभु के सामने स्वीकार करने आया हूँ। मुझे
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