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________________ ३०२ विधि आरम्भ हुई। प्रतिहार ने रोहिणेय से कहा : 'हे भद्रमुख नव-जन्मा देवता, तुम अपने पूर्व जन्म के सुकृतों और दुष्कृतों का वर्णन करो। और फिर इस स्वर्ग के सुखों का निर्बाध भोग करो।' सुन कर रोहिणेय विचार में पड़ गया। उसे किसी षड्यन्त्र की गन्ध आने लगी। यह देवों का स्वर्ग है, या मेरा कारागार? मैं यहाँ देव हूँ, या अपराधी अभियुक्त हूँ ?' .."वह सावधान हो गया। उसने अपने चित्त को एकाग्र किया : और वह सहसा ही, चीजों को, स्थितियों को आरपार देखने लगा। देखते-देखते अनायास ही एक आवरण जैसे हठात् विदीर्ण हो गया। उस दिन तीर्थंकर महावीर के जो शब्द उसने अनचाहे ही संयोगात् सुन लिये थे, वे जीवन्त मंत्र-ध्वनि की तरह उसके हृदय में गूंजने लगे। प्रभु ने देवों की पहचान के जो लक्षण बताये थे, उन्हें वह आसपास के स्त्री-पुरुषों में टोहने लगा। "अरे, इनके चरण तो पृथ्वी को स्पर्श कर रहे हैं। रज और प्रस्वेद से इनके शरीर मलिन हैं। इनकी पुष्प-मालाएँ कहीं से कुम्हलाई-सी दीख पड़ती हैं। और यह क्या.? ये तो आँखें टिमकार रहे हैं, इनके पलक झपक रहे हैं। नहीं, ये देव नहीं हैं, ये देव नहीं हैं।... सर्वज्ञ महावीर के वचन उसके हृदय के तलातल को बींध कर, उसे झकझोरने लगे। उसे एक अद्भुत् प्रत्यभिज्ञान-सा हुआ। वह आपे में आ गया। वह संचेतन हो गया। उस कपट-स्वर्ग का पर्दा उसकी आँखों पर से फट गया। "यथार्थ का सामना करते हुए उसने निवेदन किया : 'मेरे पूर्व भव के सुकृत्य सुनें, देवगण । मैंने विगत जन्म में सुपात्रों को दान दिया है। जिनचैत्यों का निर्माण कराया है। उनमें जिन-बिम्ब प्रतिष्ठित करवाये हैं। अष्टांग पूजा द्वारा उनका पूजन-अर्चन किया है। तीर्थ यात्राएं की हैं। सद्गुरु की सेवा की है। देव, गुरु, शास्त्र की आराधना में ही मैंने वह सारा जीवन बिताया है।' _ 'अब अपने पूर्व भव के दुष्कृत्यों का निवेदन करो, भद्र !'-उस दण्ड-धारी प्रतिहार ने याद दिलाया। उत्तर में रोहिणेय बोला : 'देव, गुरु, शास्त्र के नित्य समागम और संसर्ग में रहने से कोई दुष्कृत्य तो मुझसे हो ही न सका ! दण्डनायक ने कहा : 'कोई मनुष्य आजीवन एक-से ही स्वभाव या आचार से तो जी सकता ही नहीं। अतः हे भद्र, जो कुछ भी चोरी-जारी, लूट-फाँट, कोई बलात्कार, या पर-पीड़न किया हो तो स्पष्ट स्वीकारो। पाप का निवेदन किये बिना, अपने पुण्य से अर्जित इस स्वर्ग के सुख को भोग न सकोगे!' रोहिणेय ने अट्टहासपूर्वक ज़ोर से हँस कर कहा : 'अरे भले मानुष, तुम्हारा प्रश्न ही बेतुका और असंगत है। जो ऐसे दुष्कृत्य किये होते, तो भला मैं यह स्वर्ग लोक क्यों कर पा सकता था? क्या भला, अन्धा भी पर्वत पर चढ़ सकता है ?' . . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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