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सो रोहिणेय के कुटिल मन का ग्रंथिभेद करने के लिये भी, अभय ने एक स्थापत्य की रचना की। महामूल्य रत्नों से जड़े एक सात खण्ड के महल में, उसने रोहिणेय को बड़े मान-संभ्रम पूर्वक रक्खा। महल ऐसा, जैसे अमरावती का ही कोई खण्ड पृथ्वी पर आ पड़ा हो । गन्धों के नेपथ्य-संगीत से सारा महल निरन्तर गुंजायमान रहता है। अपरूप सुन्दरियाँ रोहिणेय को चारों ओर से घेर कर, अपने हाथों उसे मदिरा पान कराती रहती हैं। एक दिन मदिरा की मादन मधुर गन्ध में डूबता-उतराता वह बेसुध हो गया। गहरी मर्छा के अतल में डूब कर वह अचेत हो गया। तभी उसे देव-दूष्य वस्त्र धारण करा दिये गए।
नशा उतरने पर रोहिणेय ने जो अपने आसपास देखा, तो निस्तब्ध हो गया। मानो कि वह किसी कल्प-स्वर्ग की उपपाद शैय्या में अंगड़ाई भर कर जागा हो । 'अरे क्या उसका जन्मान्तर हो गया? सदा की परिचित पृथ्वी जाने कहाँ विलुप्त हो गयी। मुकुट-कुण्डल धारी देव-देवांगना जैसे स्त्री-पुरुष चहुँ ओर जयजयकार करते सुनायी पड़े। 'जय नन्द, जय नन्द, ईशानपति इन्द्र जयवन्त हों!' रोहिणिया कुछ पूछने की मुद्रा में ताकता रह गया। तभी उन स्त्री-पुरुषों ने कहा : 'भय का कारण नहीं, हे भद्र रोहिणेय। आप इस विशाल विमान में देवेन्द्र हो कर जन्मे हैं । आप हमारे स्वामी हैं, और हम सब आपके किंकर हैं। अब आप इन अप्सराओं के साथ शक्रेन्द्र के समान क्रीड़ा करें ?'
रोहिणेय विस्मय से अवाक् हो रहा। वह सोचने लगा : 'कहाँ से कहाँ आ गया मैं ? क्या सचमुच ही मैंने रातोंरात देव-योनि में जन्म ले लिया? कल तक का चोर आज देवेन्द्र हो गया ?' तभी किन्नर-गन्धर्वो ने संगीत-नृत्य का समारोह प्रारम्भ कर दिया। रोहिणेय हर्ष से रोमांचित हो कर, आकाश के हिण्डोलों पर पेंग भरने लगा। अप्सराएँ उसे गोद में ले-ले कर नव-नव्य मधुर आसवों का पान कराने लगीं। वह आनन्द में झूमने लगा। वह सचमुच ही जन्मान्तर और लोकान्तर का ज्वलन्त अनुभव करने लगा। __ तभी सुवर्ण की छड़ी ले कर कोई पुरुष वहाँ आया। उसने उन गन्धर्वो और अप्सराओं से कहा : 'अरे तुम यह सब क्या कर रहे हो?' उन्होंने उत्तर दिया कि : 'अरे प्रतिहार, हम अपने स्वर्गपति देवेन्द्र को, अपनी कला और सौन्दर्य द्वारा प्रसन्न कर रहे हैं।' प्रतिहार ने कहा : 'सो तो योग्य ही है। लेकिन स्वर्ग के नियमानुसार पहले नवजन्मा इन्द्र से देवलोक के आचार तो सम्पन्न करवाओ।' देव-गन्धों ने पूछा : 'क्या-क्या आचार करवाना होगा?' प्रतिहार ने उपालम्भ के स्वर में कहा : 'अरे नये स्वामी को पाने के हर्ष में तुम लोग देवलोक के आचार ही भूल गये? सुनो हमारे स्वर्ग का विधान : जब कोई नया देव यहाँ जन्म लेता है, तो पहले उसे अपने पूर्व जन्म के सुकृत्यों और दुष्कृत्यों का आत्म-निवेदन करना पड़ता है। उसके बाद ही वह स्वर्गों के सुख-भोग का अनुभव कर सकता है।'
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