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________________ ३०० 'सज्जन की रक्षा और दुर्जन का संहार, यही राज-कर्त्तव्य है, अभय राजा। इस प्रजा-पीड़क को प्राण-दण्ड दे कर, प्रजा को अत्याचार से उबारो।' धीर कण्ठ से अभय बोले : 'छल-बल से पकड़ा गया है यह दुर्दान्त पराक्रमी चोर, तात। इसकी चोरी जब तक प्रमाणित न हो, और अपना अपराध यह स्वीकार न कर ले, तब तक इसको प्राण-दण्ड किस विधान के अन्तर्गत दिया जाये, महाराज? शासन का संचालन विधान बिना कैसे हो? किस आधार पर इसका निग्रह किया जाये ? औचित्य और न्याय की तुला आपकी ओर देख रही है !' अभय राजकुमार की मंत्रणा को कौन चनौती दे सकता है। श्रेणिक सुन कर सन्नाटे में आ गये। राजा ने खिन्न स्वर में कहा : 'तो वत्स अभय, तुम्हीं वह उपाय योजना कर सकते हो, कि जिससे इस बलात्कारी लुटेरे पर शासकीय कार्यवाही की जा सके। तुम्हीं पकड़ सकते हो इस असम्भव चोर को!' । अभय राजकुमार खिलखिला कर बोले : 'आप देखते जाइये बापू, क्या-क्या होता है। होनी अपनी जगह होती है, अभय का खेल उससे रुकता नहीं। होनी और करनी एक हो जाती है, तात, मेरी इस चतुरंग-चौपड़ में। और तभी तो अचूक कार्य-सिद्धि होती है। आप देखें, महाराज, रहस्य के भीतर रहस्य है। क्या विस्मित होना ही काफी नहीं ?' श्रेणिक की बोली बन्द हो गयी। संकट की तलवार सर पर लटकी है, और अभय पहेलियाँ बुझा रहा है। मगर उस अभय के सिवाय तो इसका प्रतिकार किसी और के पास नहीं । रोष से गर्जना करते हुए सम्राट ने आदेश किया : 'जिस भी उपाय से हो, तुरन्त इस भीषण अपराधी का दमन और निग्रह करो, अभय । देर न हो!'.."अभय के इंगित पर रोहिणेय को भारी साँकलों में जकड़ कर, हिरासत में डाल दिया गया। और अभय उस व्यूह की रचना में लगे, जिसमें फँस कर रोहिणेय अपना अपराध स्वीकार करने को विवश हो जाये। __ जीवन का कवि था अभय राजकुमार। वह मानव मन का परोक्ष शिल्पी, और चेतना का वास्तुकार था। अपनी पारगामी कल्पना से ही वह सत्य के सूक्ष्मतम छोर तक पहुँच जाता था। इसी से, जब भी उसे मानव चित्त की निगढ़ गति-विधियों में प्रवेश करना होता, तो वह उसकी बिम्ब रचना करता। चक्रव्यह निर्मित करता। कोई दुर्ग या स्थापत्य रच कर, उसमें लक्षित मानव मन को चारों ओर से घेर लेता, और उसे अपने मनचाहे मार्ग से बाहर निकाल लाता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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