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________________ २९९ गया। सर्वनाशसर्वनाश हो गया। और रोहिणिया चीखा : 'और नहीं और नहीं"बहुत हुआ।' और दोनों हाथों से कस-कस कर कान भींचता, वह भाग कर राजगृही की गुप्त सुरंग में उतर गया, जिसे उसके सिवाय कोई न जानता था। और उस दिन दिन-दहाड़े ही राजगृही में भूकम्प आ गया। देखते-देखते तहख़ाने ध्वस्त हो गये। उनमें भरी अपार धनराशि लुट गयी। काले चौरों में आचुड़ ढंके एक प्रेत के उपद्रवों से, अन्तपुरों में सुन्दरियाँ चीख उठीं। बात की बात में बलात्कार-भ्रष्ट अबला की तरह राजगृही छिन्न-भिन्न हो कर आर्तनाद कर उठी। प्रजाओं ने दौड़ कर मगधनाथ श्रेणिक को त्राण के लिये गुहारा । महाराज ने कोट्टपाल को बुला कर ललकारा : 'दिन दहाड़े नगरी लुट रही है, और तुम हाथ पर हाथ धरे बैठे हो? बताओबताओ, यह कौन दैत्य हमारी प्रजाओं पर अत्याचार कर रहा है ?' कोट्टपाल ने भयात हो कर निवेदन किया : 'परम भट्टारक देव, लोहखुर का पुत्र रोहिणेय चोर बाप से सौ गुना प्रबल हो कर उठा है। वह सरे आम नगर को लुटता है। अदृश्य चेटक की तरह भूगर्भी सुरंगें लगा कर तहख़ाने फोड़ देता है। सामने देख कर भी हम उसे पकड़ नहीं सकते। हाथ-ताली दे कर, वह बिजली की तरह कौंधता हुआ ग़ायब हो जाता है। बन्दर की तरह उछल कर, हेला मात्र में एक घर से दूसरे घर में छलाँग मार जाता है। एक उड़ी मार कर नगर का परकोट तक लाँघ जाता है। उसे कोई मनुष्य तो पकड़ नहीं सकता, कोई यमदूत ही उस पिशाच को पकड़ सकता है। मैं लाचार निरुपाय हूँ, स्वामी। मेरा त्याग-पत्र स्वीकार करें!' ___ अजेय श्रेणिक गहरी चिन्ता में डूब गया। जिनेन्द्र महावीर के यहाँ बिराजमान होते, ऐसा राक्षसी उत्पात ? राजा निर्वाक्, शून्य ताकता रह गया। तभी अभयकुमार की आवाज़ सुनायी पड़ी : ___'सुनो कोट्टपाल, तुम चतुरंग सेना सज्ज कर के, नगर के बाहर तैयार रक्खो। धन-सम्पदा के तहख़ानों में घुस कर, तुम्हारे सैनिक वहाँ रत्न-कम्बलों में छुप जायें। रोहिणेय के नगर-प्रवेश का पता लगते ही, सारी नगर-परिखा को सैन्यों से पाट दो। धरती के भीतर सुरंगें खोद कर, भूगर्भो में उतर जाओ। तब चारों ओर से अपने को घिरा पाकर, लाचार जाल में फंसे हिरन की तरह वह चोर तुम्हारे सैन्यों के हाथों में आ पड़ेगा।' ० बुद्धिनिधान अभयदेव की युक्ति अचूक काम कर गयी। अगले ही दिन रोहिणेय को पकड़ कर महाराज के सामने हाज़िर कर दिया गया। महाराज ने मंत्रीश्वर अभयराज को आदेश दिया : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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