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________________ २९८ रोहिणेय ने पिता के चरण छु कर, उनकी आज्ञा को शिरोधार्य किया। उसे बीज-मंत्र की तरह अपने हृदय पर अंकित कर लिया। और थोड़ी ही देर में लोहखुर पंचत्व को प्राप्त हो गया। __ 'रोहिणेय हर रात मातुल हाथी की तरह राजगृही पर टूटने लगा। हर दिन उसका आतंक बढ़ने लगा। अपने जीवितव्य की तरह, वह पिता की आज्ञा का पालन करता। और अपनी स्वकीया स्त्री की तरह, वह राजगृही को आधी रातों में लूटने लगा। ठीक तभी अनेक नगर, ग्राम, खेटक, द्रोणमुख में विहार करते, चौदह हज़ार श्रमणों से परिवरित तीर्थंकर महावीर प्रभु राजगृही पधारे। अगोचर में से संचरित होते सुवर्ण-कमलों पर चरण धरते प्रभु, दूर पर आते दिखाई पड़े। छुप कर रोहिणेय ने भी यह दृश्य देखा। आह, काश ये सोने के कमल वह चुरा सकता! अरे किस अदीठ सोते से ये फूटते आ रहे हैं ? वह सोता भला कहाँ छुपा होगा? उसे लूटे बिना रोहिणेय को चैन नहीं। लेकिन इस महावीर की चरण-चाप बिना तो वह सोता फूटता नहीं। और महावीर को तो देखना ही उसका सर्वनाश है। पिता की आज्ञा जो है । तो फिर कैसे क्या हो? ___ संयोग की बात, कि उस दिन जब रोहिणेय चोरी करने निकला, तो उसे जिस दिशा का सगुन मिला, उसी की राह में महावीर का समवसरण बिराजमान था। देखते ही वह काँप उठा। सगुन की दिशा से लौटना तो सम्भव नहीं। और इस राह से गुज़रे, तो महावीर की वाणी सुनने से बचना मुश्किल। वह बड़ी परेशानी में पड़ गया। उसे उपाय सूझा, कि वह कानों आड़े हाथ धर ले। सो कस कर कान भींचे तेज़ चाल से वह भागा जा रहा था, कि ठीक समवसरण के पास ही उसके पैर में एक तीखा काँटा खूप गया। चाल के द्रुत वेग के कारण काँटा गहरा धंस कर शूल-सा कसकने लगा। एक पग भी आगे चलना कठिन हो गया। निरुपाय ठिठक कर वह कराह उठा। प्राण-पीड़न से बढ़ कर तो पिता की आज्ञा नहीं हो सकती। कोई उपाय न सूझा, तो वह कानों पर से हाथ हटा कर काँटा निकालने लगा। ठीक तभी उसे महावीर की वाणी सुनायी पड़ी : 'जानो भव्यो, जिनके चरण पृथ्वी को छूते नहीं, जिनके नेत्रों की पलकें झपकती नहीं, जिनकी पुष्पमाला कुम्हलाती नहीं, जिनके शरीर प्रस्वेद और रज से रहित होते हैं, वही देवता कहे जाते हैं। यही है देव की एकमात्र पहचान !' महावीर का शब्द-शब्द रोहिणिया ने सुन लिया, और पिता की आज्ञा को भेद कर, वह उसके हृदय में गहरा उतर गया। अनर्थ अनर्थ हो गया ! महाप्रतापी श्रेणिक तक जिससे आतंकित था, उस रोहिणेय की पगतलियों में पसीना आ गया। हाय, अब क्या होगा। पिता का दिया मंत्रादेश भंग हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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