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चोर हो तो ऐसा हो
समकालीन संसार की चूड़ामणि नगरी राजगृही । जिसका सुख, विलास और वैभव सारे जम्बूद्वीप में दन्त-कथाओं और लोकगीतों में गाया जाता । जिस पर अच्युत स्वर्ग के कल्पवृक्षों से अदृश्य काम - रत्नों की वर्षा होती रहती । अजित् विक्रम श्रेणिक की राजनगरी राजगृही। जिसके पंचशैल में महावीर की तपो - लक्ष्मी विचरण करती है। जिसके आँचल में महावीर को कैवल्यलाभ हुआ। जिसके विपुलाचल पर देव - मण्डलों के स्वर्गों ने उतर कर, तीर्थंकर महावीर का प्रथम समवसरण रचा । जहाँ उन विश्व त्राता प्रभु की प्रथम धर्म - देशना हुई । जिसके वैभार गिरि के शिखर जिनेन्द्र महावीर की दिव्यध्वनि से गुंजायमान हैं । प्रभु के चराचर - वल्लभ प्रेम के प्रसाद से, जो वैभार पर्वत अभयारण्य हो गया है ।
उसी वैभार की एक अज्ञात गुफ़ा में रहता है, भय का मूर्तिमान अवतार लोहखुर चोर । उसके आतंक से राजगृही का सुख वैभव सदा काँपता-थरथराता रहता है । उसकी रौद्र लीला से सम्राट और श्रेष्ठियों की नींद हराम हो गयी है। उनके रत्न-निधानों में लोहखुर ने सुरंगें लगा दी हैं । रतिसुख में तल्लीन सोई रानियों और सेठानियों की अकूत कटि - मेखलाएँ, जाने कौन एक अदृश्य हाथ जाने कब उड़ा ले जाता है । प्रजाएँ उसके आतंक से त्राहि माम् कर उठती हैं । राजगृही का जीवन हर पल भय और संत्रास में साँस लेता है ।
लोहखुर की पत्नी थी रोहिणी । उसका एक इकलौता बेटा था रोहिणेय । जन्मघुट्टी से ही चौर्य- कला उसे सिद्ध हो गयी थी । अपने रुद्र प्रताप में बेटा, बाप से सवाया था । और एक दिन लोहखुर चोर मृत्यु शैया पर आ पड़ा । अन्तिम क्षण में उसने रोहिणेय को बुला कर कहा :
'बेटे, तेरे आतंक से जगत् काँपता है । तू चाहे तो एक दिन जम्बूद्वीप पर राज कर सकता है । पर एक बात मेरी याद रखना : यह जो देवों के रचे समवसरण में बैठ कर महावीर नामक योगी उपदेश करता है, उसका वचन तू कभी भूल कर भी न सुनना । एक शब्द भी उसका सुन लेगा, तो तेरा सर्वनाश हो जायेगा । उसके अलावा तू चाहे जहाँ स्वच्छन्द विचरना। लेकिन उस महावीर की छाया भी अपने ऊपर न पड़ने देना !'
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