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२९६ 'अर्हत् के उस स्वाधीन ऐश्वर्य को कैसे उपलब्ध हो सकता हू भन्ते ?'
'निरन्तर स्वयम् अर्हत् भाव में रह कर। स्वयम् अर्हन्त हो कर, अर्हन्त का यजन कर। शिवोभूत्वा शिवं यजेत् । सोहम्, शिवोहम्, अर्हतोहम्, सिद्धोहम्, -यही हो तेरा मंत्र!'
सुनते-सुनते दशार्णभद्र की साँसों में औचक ही मंत्र जीवन्त हो गया। उसे लगा कि वह साँस नहीं ले रहा, सौरभ के समुद्र में अनायास तैर रहा है। रोशनी के बादल-यानों पर महाकाश में उड़ रहा है।
दशार्णभद्र का देहभाव चला गया। उसे लगा कि उसके शरीर से सारे वस्त्राभरण यों उतर गये, जैसे फागुन की उन्मादक हवा में जीर्ण पत्र झड़ कर उड़ते दिखायी पड़ते हैं। उसे हठात् श्रीवाणी सुनायी पड़ी :
'तूने केवल अपने को इतना एकाग्र देखा, राजन्, कि तेरा अहंकार ही स्वयम् अपना अतिक्रमण कर सोहंकार हो गया ! तेरी अत्यन्त आत्मरति ही चरम पर पहुँच कर विरति हो गयी। तेरी अभीप्सा ही मुमुक्षा होने को विवश हो गयी। चैतन्य की इस विचित्र लीला को देख और जान, राजन्। यह सर्वकामपूरन है !'
और दशार्णभद्र को श्रीचरणों में समाधि लग गयी।
उसकी सारी रानियाँ, अपने रत्नाभरणों को श्रीभगवान् के चरणों में निछावर कर, उनकी महाव्रती सतियाँ हो गईं।
"तब इन्द्र स्वयम् आ कर, आत्मजयी दशार्णभद्र और उसके अन्तःपुर को नमित हो गया !
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