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'तो मैं प्रभु से दूर चला जाऊँ? मैं प्रभु को भूल जाऊँ ?'
'हाँ, दूर चले जाना होगा, एक दिन । भूल जाना होगा, एक दिन । स्वयम् महावीर तुम्हें ठेल देगा, एक दिन । तब जानोगे, कि तुम कौन हो, मैं कौन हूँ ? कल्याणमस्तु, गौतम ! '
प्रभु चुप हो गये । उनकी इस वज्र वाणी से सारे चराचर पसीज उठे । जीव मात्र गौतम के प्रति सहानुभूति से करुण - कातर हो आये ।
...गौतम को लगा कि प्रभु ने उन्हें लोकाग्र की सिद्धशिला पर से, लोक के पादमूल में फेंक दिया है । देह का पिंजर भेद कर हंस, उस क्षण जाने किन चिदाकाशों में यात्रित हो चला ।
''और उस उड़ान में भी गौतम के मन में एक ही भाव उभर रहा था : "ओह, मेरे प्रभु कितने सुन्दर हैं ? क्या तीर्थंकर महावीर का यह त्रिलोकमोहन रूप भी नाशवान है ? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता ! मैं काल को हरा दूंगा, और अर्हन्त के इस सौन्दर्य को एक न एक दिन अमर हो जाना पड़ेगा । मेरे लिये ! ... '
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