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तभी श्रीगुरु गौतम ने अपने पन्द्रह सौ तापस शिष्यों को आदेश दिया : 'महाभाग तापसो, श्रीभगवान् की वन्दना करो!' . तत्काल प्रभु ने वर्जना का हाथ उठा कर निर्देश किया :
'केवली की आशातना न करो, आयुष्यमान् गौतम ! केवली, केवली की वन्दना नहीं करते। ये पन्द्रह सौ तापस कैवल्य-लाभ कर अर्हन्त हो चुके हैं। अर्हन्त, अर्हन्त को प्रणाम नहीं करते, वे परस्पर को दर्पण होते हैं।'
''सुन कर गौतम की सुप्त व्यथा फिर जाग उठी। धन्य हैं ये महात्मा ! मेरे ही द्वारा प्रतिबोधित और दीक्षित मेरे ये पन्द्रह सौ शिष्य भी केवली हो गये? और मैं स्वयम् निरा ठूट ही रह गया ! प्रभु के निकटतम हो कर भी, मैं अब तक उनकी कैवल्य-कृपा न प्राप्त कर सका ? निश्चय ही इस भव में मुझे सिद्धि नहीं मिलेगी। तभी अचानक श्रीभगवान का स्वर सुनाई पड़ा :
'देवानुप्रिय गौतम, तीर्थंकर का वचन सत्य, कि देववाणी सत्य ?' 'तीर्थंकर का वचन सत्य, भगवन् ?'
'महावीर तुम्हारे लिये कम पड़ गया ? तुम्हें उसकी सामर्थ्य पर शंका हुई ? तुम देववाणी का आदेश मानकर, अष्टापद पर्वत पर गये। वहाँ कैवल्य मिला तुम्हें ?'
गौतम ने चाहा कि धरती फट पड़े, और वे उसमें समा जायें। चाहा कि, दौड़ कर प्रभु की गोद में सर डाल रो पड़ें। कि तत्काल सुनाई पड़ा :
'महावीर की गोद में सर डाल देने से कैवल्य मिल जायेगा? अपनी ही गोद में सर डालने को तुम्हारा जी नहीं चाहता न? क्यों कि तुम आप में नहीं, पर में जी रहे हो। तुम महावीर के रूप में मोहित हो कर, उसी की मूर्छा में जी रहे हो। महावीर की आत्मा से अधिक तुम्हें उसका शरीर प्रिय है। पर्याय पर ही अटके हो, पर्यायी को नहीं देखोगे? आवरण पर ही अनुरक्त हो रहे तुम, तो आवरण कैसे हटे, आत्म का दर्शन कैसे हो?'
__ गौतम के उस भव्य शान्त मुख-मण्डल पर आँसुओं की धाराएं बंध गईं। उन्हें फिर सुनाई पड़ा : ___ 'सुनो गौतम, शिष्य पर गुरु का स्नेह कमल के हार्द में स्वतः स्फुरित पराग की तरह होता है, जो अनायास सर्वव्यापी हो जाता है। और गुरु पर शिष्य का ममत्व, तुम्हारी तरह ऊन की गुंथी चटाई जैसा सुदृढ़ और प्रगाढ़ होता है। चिरकाल के संसर्ग से, जन्मों के ऋणानुबन्ध से हम पर तुम्हारा मोह बहुत दृढ़ हो गया है। इसी से तुम्हारा केवलज्ञान रुंध गया है। जब तक यह पर भाव में रमण है, जब तक यह भंगुर रूप की आसक्ति है, तब तक अमर आत्म का दर्शन क्यों कर सम्भव है ?'
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