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________________ २८९ तापस उन्मग्न हो, पाणि-पात्र उठा कर आहार-जल ग्रहण करने को उद्यत हो गये। उन्होंने देखा कि जाने कहाँ से उनकी अंजुलियों में प्रासुक जलधारा बरसने लगी। वे ईप्सित जल पी कर शान्त हो गये। मानो प्यास सदा को बुझ गयी। कि तत्काल उनके उठे पाणि-पात्रों में दिव्य केशर-सुरभित पयस् ढलने लगा। उन्होंने जी भर कर सुमधुर पयस् का आहार किया। "अहो, ऐसा मधुरान्न तो आज तक चखा न था। पार्थिव भोजनों में ऐसा माधुर्य कहाँ ? क्या इसी को अमृत कहते हैं ? क्या हमने उसका प्राशन किया? और अचानक उन्होंने ऐसी परितृप्ति अनुभव की, मानो उनकी भूख सदा को मिट गयी।तब आनन्द और आश्चर्य से गद्गद् हो तापसों ने श्रीगुरु से पूछा : 'श्रीगुरुनाथ, यह सब कहाँ से? कैसे ? और हमें यह क्या हो गया है?' 'परम मुमुक्षु तापसो, जानो कि अक्षीण महानस लब्धि तुम्हारी सेवा में आ खड़ी हुई है। तुम कल्प-काम हुए, श्रमणो! तुम्हारा काम्य पानी और पयस तुम्हारे ही भीतर से उद्गीर्ण हो आया। तुम आत्मकाम हुए, आयुष्यमानो !' और उन पन्द्रह सौ तापसों ने अनुभव किया : कि जैसे उनका शरीर अनायास परिमल की तरह हलका और व्याप्त हो चला है। भीतर के पोरपोर में शून्य उभर रहा है। बाहर भी सब कुछ में एक विश्रब्ध शन्य गहराता जा रहा है। औचक ही उन सब को लगा, कि उनका 'मैं' विलप्त हो गया है। प्रथम पुरुष भी नहीं, द्वितीय पुरुष भी नहीं, बस निरे पन्द्रह सौ तृतीय पुरुष, बिना किसी आयास या इच्छा के स्वत: संचालित चले चल रहे हैं। कर्ता भी नहीं, भोक्ता भी नहीं, व्यक्ति भी नहीं। निरे दर्शन, ज्ञान, चारित्र्य एकीभूत : अनन्य अन्य पुरुष । “द्रष्टा, दृश्य, दर्शन एकाकार हो गये हैं। और हठात् उन सब को सम्वेदित हुआ कि, उनके भीतर जाने कितने सूर्यों की एक नदी-सी बह रही है। - परम मुहर्त घटित हुआ। दत्त आदि पाँच-सौ तापसों को दूर से ही प्रभु के अष्ट प्रतिहार्य देख कर उज्ज्वल केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। वैसे ही कौडिन्य आदि पाँच-सौ तापसों को दूर से ही सर्वज्ञ महावीर का दर्शन हो गया : और निमिष मात्र में वे कैवल्य से प्रभास्वर हो उठे। शुष्क शैवाल-भक्षी पाँच-सौ तापसों को, प्रभु पर छाये अशोक वृक्ष की हरी छाया अनुभव कर कैवल्य लाभ हो गया। O समवसरण के श्रीमण्डप में पहुँच कर देवार्य गौतम ने विधिवत् तीन प्रदक्षिणा दे कर, श्रीभगवान् का त्रिवार वन्दन किया। उनके पीछे खड़े तापसों का देहभाव अनायास चला गया। वे वन्दना-प्रदक्षिणा से परे चले गये। वे कायोत्सर्ग में लीन हो, निश्चल ध्रवासीन हो रहे। और विप ल मात्र में ही अर्हन्त महावीर के साथ तदाकार हो गये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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