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________________ २८८ 'हे महायतिन्, हम सब श्रीचरणों में समर्पित हैं। आप हमारे एकमेव श्रीगुरु हो जायें, और हमें अपने शिष्य रूप में ग्रहण करें।' 'सुनो तापसो, इस समय पृथ्वी पर एकमेव श्रीगुरु हैं, गुरुणांगुरु सर्वज्ञ अर्हन्त महावीर । मैं स्वयम् तो केवल उनका पादपीठ हूँ। समस्त लोकालोक के गुरु वही त्रिलोकपति भगवान् तुम्हारे एकमेव गुरु हो सकते हैं। चाहो तो मेरे संग उन प्रभु के जगत्-वन्द्य समवसरण में चलो, और उन्हें श्रीगुरु के रूप में प्राप्त करो।' 'हे महाभाव मुनीश्वर, पहले हमें भी अपने ही जैसा निग्रंथ दिगम्बर बना लें। हमें जिनेश्वरी दीक्षा दे कर, अपने पदानुसरण के योग्य बना लें। तभी तो हम आपके अनुगमन के पात्र हो सकते हैं। तभी तो हम अर्हन्त महावीर की कृपा के भाजन हो सकते हैं।' तापसों की प्रबल अभीप्सा और अटल आग्रह देख, श्रीगुरु गौतम प्रसन्न हुए। उन्होंने सहर्ष उन्हें यतिलिंग प्रदान किया। अदृष्य देव-शक्ति ने उन्हें पिच्छी-कमण्डल दान किये। फिर विन्ध्यगिरि में जैसे यूथपति महाहस्ति के साथ दूसरे हाथी चलते हैं, वैसे ही भदन्त गौतम अपने पन्द्रह-सौ शिप्यों के साथ, श्रीभगवान् के समवसरण की दिशा में प्रस्थान कर गये। "भगवद्पाद गौतम को जाने क्या सूझा, कि उन्होंने राजमार्ग छोड़ कर पथहीन अरण्य की राह पकड़ी। तापस निःशंक हो कर अपने गुरु का अनुगमन करने लगे। जाने कब से वे दीर्घ और कठिन तपस्या कर रहे थे। गुरुप्राप्ति के उल्लास से उन्हें एक अपूर्व और तीव्र भूख लग आयी। खूब प्यास भी लग रही थी। गौतम अपने शिष्यों की इस एषणा को जान गये। वे उनकी तितिक्षा की कसौटी करते रहे। शिष्य भूखे-प्यासे, देह की पुकार की अवहेलना कर, एकाग्र चित्त से श्रीगुरु के पीछे द्रुत पग चलते चले गये। गौतम को प्रत्यय हुआ कि ये तापस देहभाव से अनायास उत्तीर्ण हो रहे हैं। तभी अचानक एक स्थान पर रुक कर, श्रीगुरु गौतम ने आदेश दिया : ___ 'देवानप्रियो, आहार की बेला हो गयी। स्थिर खड़े हो कर अपनी अंजुलियाँ ऊपर उठाओ। आहार-जल प्रस्तुत है !' वे पन्द्रह सौ श्रमण पहले तो सुन कर अवाक रह गये। इस जनहीन जलहीन अरण्य में आहार-जल कैसे ? कहाँ प्रस्तुत है वह ? कहाँ से आयेगा वह ? अगले ही क्षण उनका प्रश्न और विकल्प जाने कहाँ विलीन हो गया। वे भीतर-बाहर निरे शन्य हो रहे । आपोआप ही वे नासाग्र पर दृष्टि स्थिर कर, ध्यानावस्थित हो गये। 'आयुष्यमन्, आहार जल ग्रहण करो!' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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