________________
२८७
तब वे सारे तापस प्रभुपाद गौतम के समीप उपनिषत् हुए । गौतम ने स्वयम् ही उन तापसों की जिज्ञासा जान ली । सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र्य की महिमा का प्रतिबोध दे कर गौतम बोले :
'परम कल्याणवरेषु तापसो, देह की स्थूलता और क्षीणता चेतना के ऊर्ध्वगमन की निर्णायक नहीं । साधक श्रमण की आत्म-शक्ति के विकास पर ही यह निर्भर करता है। आत्मजयी अर्हत् देह में विद्यमान हो कर भी, देहातीत विचरते हैं। चारित्र्य-शुद्धि के कारण भावलिंगी यतियों की चेतना में जब महाभाव आलोकित हो उठता है, तो उनके निकट ऐसी दैवी ऋद्धियाँ स्वतः सहज प्रकट हो उठती हैं, जो मानुषी अवस्था में सम्भव नहीं। ये ऋद्धियाँ और लब्धियाँ उन मुनि भगवन्तों का काम्य नहीं, लक्ष्य नहीं, प्रयोजन नहीं। वे आप ही मानो उनकी चरण-चेरियाँ हो कर, उनकी सेवा में उपस्थित रहती हैं। आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण हेतु कभी-कभी वे स्वयम् ही मुनीश्वर की सहायक हो जाती हैं। अणिमा और महिमा ऋद्धि पल मात्र में देह को लघु या गुरु कर देती है। तब चैतन्य के ऊर्ध्व आरोहण में देह दासी की तरह अनुगमन कर जाती है। मैं खेल-खेल में ही कैसे इस महागिरि पर चढ़ कर उतर आया, यही तो तुम्हारी जिज्ञासा थी?'
'हे भदन्त महाश्रमण, आप अन्तर्ज्ञानी हैं। आप हमारे तन-मन के स्वामी हैं। हमें कुछ और भी प्रतिबुद्ध करें। श्रमण भगवन्तों को सहज सुलभ ऋद्धियों के कुछ प्रकार और स्वरूप हमारे लिये आलोकित करें।'
'अण् मात्र शरीर करने की सामर्थ्य, अणिमा-ऋद्धि है । मेरु से भी महत्तर शरीर करने की सामर्थ्य, महिमा-ऋद्धि है। पवन से भी हलका शरीर करने की सामर्थ्य, लघिमा-ऋद्धि है। वज्र से भी भारी शरीर करने की सामर्थ्य, गरिमा-ऋद्धि है। भूमि पर बैठ कर उँगली के अग्रभाग से मेरु पर्वत के शिखर तथा सूर्य-चन्द्र के विमान को स्पर्श करने की सामर्थ्य, प्राप्ति-ऋद्धि है। जल पर भूमि की तरह, तथा भूमि पर जल की तरह गमन करने की सामर्थ्य, और धरती का निमज्जन तथा उन्मज्जन करने की सामर्थ्य, प्राकाम्यऋद्धि है। त्रैलोक्य का प्रभुत्व प्रकट करने की सामर्थ्य, ईशत्व-ऋद्धि है। देव, दानव, मनुष्य आदि सर्व जीवों को वश करने की सामर्थ्य, वशित्वऋद्धि है। पर्वतों के बीच आकाश की तरह गमनागमन करने की शक्ति,
और आकाश में पर्वतारोहण की तरह गमनागमन करने की सामर्थ्य, अप्रतिघात-ऋद्धि है। अन्तर्धान होने की सामर्थ्य, अन्तर्धान-ऋद्धि है। युगपत् (एक साथ) अनेक आकार रूप शरीर करने की सामर्थ्य, कामरूपित्व-ऋद्धि है। ऐसी अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ स्वतः ही योगी के अधीन हो रहती हैं ।'
श्रीपाद गौतम के ऐसे वचन सुन कर, पन्द्रह सौ तापस चकित निःशब्द, निर्मन-से हो रहे। फिर उन्होंने एक स्वर में निवेदन किया :
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Educationa International