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"प्रभु की पाद-वन्दना कर तत्काल श्रीपाद गौतम समवसरण से प्रस्थान कर गये। और चारण-ऋद्धि के सामर्थ्य से, वायुवेग के साथ ना कुछ समय में ही अष्टापद पर्वत के समीप आ पहुंचे। उस काल, उस समय कौडिन्य, दत्त, शैवाल आदि पन्द्रह सौ तपस्वी, अष्टापद को मोक्ष का हेतु सुन कर, उस गिरि पर चढ़ने का पराक्रम कर रहे थे। उनमें से पाँच सौ तपस्वी चतुर्थ तप करके आर्द्र कन्दादि का पारण करते हुए भी, अष्टापद की पहली मेखला तक ही आ सके थे। दूसरे पाँच सौ तापस छट्ठ तप (छह उपवास) करके मात्र सूखे कन्दादि का पारण करते हुए भी, उस गिरि की दूसरी मेखला तक ही पहुंच सके थे। तीसरे पाँच सौ तापस अट्ठम तप करके, सूखे शैवाल का पारण करते हुए भी, तीसरी मेखला से आगे न जा सके थे। इससे अधिक तपस्या की सामर्थ्य न होने से, वे इन तीन मेखलाओं में ही रुके पड़े थे। उनके मन में प्रश्न था : कि क्या केवल तपस्या से ही चूड़ान्त पर पहुंचा जा सकता है ? उनमें बोध-सा जाग रहा था, कि कोरा कायक्लेश मोक्षलाभ नहीं करा सकता।
...तभी उन्होंने अचानक देखा, कि तप्त सुवर्ण के समान कान्तिमान, एक पुष्ट काय महाशाल पुरुष वहाँ आकर पर्वतपाद में उपविष्ट हुए हैं। पर्वत के समक्ष वे कायोत्सर्ग में लीन हो गये हैं। उन्हें अष्टापद पर चढ़ने को उद्यत देख, वे तापस परस्पर कहने लगे, हम कृषकाय हो कर भी तीसरी मेखला से आगे न जा सके, तो ये विपुल शरीर महाकाय पुरुष कैसे ऊपर चढ़ सकेंगे? वे कौतूहल-प्रश्न ही करते रहे, और उधर गौतम न जाने कब उस महागिरि पर चढ़ गये, और देव के समान उनकी आँखों से अदृश्य हो गये। तब उन सब को निश्चय हो गया, कि इन महर्षि के पास कोई महाशक्ति है। सो उन्होंने निर्णय किया कि जब ये महापुरुष लौट कर नीचे आयेंगे, तब हम सब इनको गुरु रूप में स्वीकार कर, इनका शिष्यत्व ग्रहण कर लेंगे। और वे, पर्वत-चूल पर एकाग्र ध्यान लगाये गौतम की प्रतीक्षा करने लगे।
उधर गौतम लब्धि बल से, क्षण मात्र में ही अष्टापद पर्वत की चूड़ा पर जा पहुंचे थे । वहाँ उन्होंने शाश्वत विद्यमान चौबीस तीर्थंकरों के अकृत्रिम और आकाशगामी, उत्तान खड़े दिव्य बिम्बों का बड़े भक्ति-भाव से वन्दन किया। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, मानो नन्दीश्वर द्वीप के भरतेश्वर द्वारा बनवाये हए चैत्य में उन्होंने प्रवेश किया हो। चैत्य में से निकल कर गौतम एक विशाल अशोक वृक्ष के नीचे बिराजमान दिखायी पड़े। वहाँ अनेक सुरों, असुरों और विद्याधरों ने उनकी वन्दना की। गौतम ने उनके योग्य धर्म-देशना उन्हें सुनायी, जिससे उनके कई चिरन्तन प्रश्नों का समाधान हो गया। वहाँ एक रात्रि परम ध्यान में निर्गमन करके, प्रातःकाल वे पर्वत से उपत्यका में उतर माये।
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